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________________ ७२, वर्ष २६, कि.२ अनेकान्त बाहुबली कहने लगे-दूत ! जिन्हें शान्ति से वश में नहीं शत्रुओं को अपनी इच्छानुसार जीतने की इच्छा करते हैं, किया जा सकता उनके साथ महकार का प्रयोग करना वे अपने कुल की स्त्रियों और भुजामों से कमाई हुई पृथ्वी मुर्खता है। भरतेश्वर उम्र में बड़े हैं किन्तु बूढा हाथी को छोड़कर बाकी सब कुछ दे सकते है। धीर वीर पुरुष सिंह के बच्चे की बराबरी नहीं कर सकता।' यह ठीक है प्राण देकर भी मान की रक्षा करते हैं क्योंकि मानपूर्वक कि बड़ा भाई पूज्य होता है किन्तु जिसने सिर पर तलवार कमाया हुपा यश ही संसार की शोभा है। प्रतः अपने रख छोड़ी है उसे प्रणाम करना कहा की रीति है ? भग- चक्रवर्ती से जाकर कह देना कि या तो पृथ्वी का उपभोग बान ने हम दोनों को राज्य पद दिया था। यदि भरत भरत करेगा या मैं ही उपभोग करूगा"। हम दोनों का लोभ में पड़कर राजा बनना चाहता है तो भले ही बनें, जो कुछ होगा वह युद्ध भूमि में ही होगा। इतना कहकर परन्तु हम तो अपने सुराज्य में रहकर राजा ही बना स्वाभिमानी वाहुबली ने दूत को विदा कर दिया और रहना पसन्द करते हैं। वह हमे बच्चो के समान फुसला- युद्ध की तैयारी करने का आदेश दिया। उधर जब दूत कर और हम से प्रणाम करवाकर भूमि का टुकड़ा देना के मुख से बाहुबली का निर्णय ज्ञात हमा तो भरत ने भी चाहता है किन्तु भरत का दिया हुआ वह भूमि खण्ड अपनी सेना के साथ पोदनपुर के लिए प्रस्थान किया। हमारे लिए खली के टुकड़े के समान है ।' मनस्वी पुरुष दोनों पोर की सेनाएं रणभूमि मे प्रा डटी। और दोनों अपनी भुजाम्रो के परिश्रम से प्राप्त अल्प फल मे ही ही पक्ष के योद्धा अपनी अपनी सेना की व्यूह रचना करने सन्तुष्ट रहते है। जो पुरुष राजा होकर भी अपमान से में जट गये । मलिन विभूति को स्वीकार करता है, वह नर पशु है और इधर मंत्रीगण विचार विमर्श में लगे हुए थे । उनका उनकी विभति एक भार है। मानभग कराकर प्राप्त हुई कहना था कि क्रूर ग्रहो के समान दोनों का युद्ध शान्ति के भोग सम्पदा में अनुरक्त मनुष्य, मनुष्य नही किन्तु पशु लिए नहीं है । दोनों ही चरम शरीरी है। प्रत: युद्ध से है। मुनि भी जब स्वाभिमान का परित्याग नही करते इन दोनो को कोई क्षति नहीं हो सकती। किन्तु दोनों तब राजपुरुष कैसे अपना अभिमान छोड़ सकता है। ही पक्ष के योद्धा व्यथं में मारे जायेंग। भीषण नर सहार बन में जाकर रहना अच्छा है और प्राणो का परित्याग होगा, ऐसा विचार कर दोनों ही पक्ष के मत्रियों ने अपने करना भी अच्छा है किन्तु स्वाभिमानी पुरुष के लिए स्वामी की अनुमति लेकर उनके सामने यह विचार रक्खा किसी का दास होना अच्छा नही है। पिता जी के द्वारा कि निष्कारण नर सहार करने से बडा अधर्म होगा और दी हुई हमारे कुल की यह पृथ्वी भरत के लिए भाई की लोक मे अपयश फैलेगा। बलाबल की परीक्षा तो अन्य स्त्री के समान है। जब वह उसे लेना ही चाहता है तो प्रकार से भी हो सकती है। अतः पाप दोनों भाई तीन क्या उसे लज्जा नही पाती। जो मनुष्य स्वतंत्र है और प्रकार का युद्ध करें। और जिसकी पराजय हो वह भकुटि ३. ज्येष्ठ: प्रणम्य इत्येतत्कामयस्त्वन्यदा सदा। ८. दूत तातवितीर्णा नो महीमेना कुलोचिताम् । मूर्धन्यारोपितखड्गस्य प्रणाम इति क: क्रमः ॥३५-१०७ भ्रातृजायामिवाऽऽदित्सो: नास्यलज्जा भवत्पतेः ।। ४. बालानिवच्छलादस्मान् पाहूय प्रणम्य च । प्रा. पु. ३५-३४ पिण्डीखण्ड युवा भाति महीखण्डस्तदर्पितः ।। ३५-१११ ६. देयमन्यत् स्वतन्त्रेण यथाकामं जिगीषुणा। ५. स्वेदाईमफल इलाध्यं यत्किञ्चन मनस्विनाम् । मुक्त्वा कुलकलत्रं च क्ष्मातलं च भुजाजितम् ।। न चातुरन्तमय्यश्यं परभ्रूलतिकाफलम् ।। ३५-११२ प्रा. पु. ३५-३५ ६. प्रादिपुराण ५-११७. ७.वर बनाधिवासोऽपि वरं प्राण विसर्जनम् । १०. भूयस्तदलमालप्य स वा भुक्ता महीतलम् । कुलाभिमानिनः पुंसो न पराशा विषेयता ॥ चिरमेकातपत्राङ्कम् प्रहं वा मुजविक्रमी ।। मा. बु. ३५-१८ भा. पु. ३५-३६
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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