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महावीर का धर्म-दर्शन : आज के सन्दर्भ में
॥ श्री वीरेन्द्र कुमार जैन, बम्बई
यह केवल मंयोग नहीं, बल्कि एक बुनियादी तथ्य है कि चीजों के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण ही सम्यक् दर्शन कि महावीर का धर्म-दर्शन भाज के सन्दर्भ मे शत-प्रतिशत है। जैनी मानता है कि वस्तुप्रो या व्यक्तियो को देखकर, घटित होता है। इसका कारण यह है कि जैन द्रष्टायो ने या उनसे सम्बन्धित हो कर जो रागात्मक भाव हमारे मन सत्ता की जो परिभाषा प्रस्तुत की है, उममे वस्तुमो की मे उदय होता है, उसी में चीजो का मूल्य नही पाकना प्रतिक्षण की गतिविधि और प्रगति अत्यन्त प्रद्यतन चाहिए । वस्तुओं पर अपने भाव या राग को प्रारोतरीके मे ममाहित हो जाती है । उन्होने कहा है : पित करके उन्हे न देखो। वे यथार्थ में, अपने आप मे "उत्पाद-व्यय-धौव्य-युक्त मत्वं ।" मत्ता एकबारगी जैसी है, वैसी ही उन्हे वीतराग भाव मे देखो। चीजो पर ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य मे युक्त है, अर्थात् उनमे अपने को लादो नही । तुम स्वय अपने में रहो, चीजो को प्रतिक्षण कुछ उत्पन्न हो रहा है, कुछ मिट रहा है, और स्वयं अपने में रहनो दी। स्वयं अपने स्वभाव में रहो, कुछ है जो मदा एकसा कायम रहता है। प्रतिक्षण जो उठ चीजों को अपने स्वभाव में रहने दो । इसी तरह उनसे और मिट रहा है, वह पर्याय है, यानी चीजो का रूप है, सरोकार करो, इसी तरह उनमे बर्ताव करो। हमारा और जो सदा एक-मा कायम यानी ध्रुव है, वह चीजों का दृष्टिकोण चीजो के प्रति वस्तु-लक्ष्यी या 'पाब्जेक्टिव' हो, सत्य है, अर्थात् साराश है। मतलब यह हुआ कि गति आत्म-लक्ष्यी या 'सब्जेक्टिव' न हो। इस प्रकार हमने यह और स्थिति के मयुक्त रूप को ही सत्ता कहते है। देखा कि पाज के युग की एक और मवमे बड़ी विशेषता
इस तरह हम देखते है कि जैन-दर्शन ने वस्तु की प्रति वस्तु-लक्ष्यी या 'ग्राब्जेक्टिव' दृष्टिकोण है और वही जैन क्षण की नित नई गति-प्रगति को सत्य के रूप में स्वीकृति तत्वज्ञान का आधारभूत मिद्धान्त है। प्राधुनिक बुद्धिवाद दी है। उमे महज मिथ्या, माया या प्रपंच कह कर टाला और विज्ञान इसी दृष्टिकोण के ज्वलन्त परिणाम है। नही है । ठीक विज्ञान की तरह ही जन-दर्शन ने इस विश्व जैन तत्वज्ञान को सावधानीपूर्वक समझने पर पता की तदगत वास्तविकता यानी "ग्राब्जेक्टिव रियलिटी" चलता है कि उसमें जीवन-जगत् का इनकार नहीं, बल्कि को स्वीकार किया है। नतीजे में यह हाथ पाता है कि महज स्वीकार है। जीवन-जगत् जैनी के लिए एक ठोस जैनधर्म यथार्थवादी है, वास्तविकता-वादी है, वह कोरा वास्तविकता है, और उममे जीने वाले मनुष्य या प्राणी पादर्शवादी नही है। जीवन से कटे हुए कोरे ऊध्वंमुख की प्रात्मा भी एक ठोस वास्तविकता है। सो उनके बीच पादर्शवाद की प्रस्वीकृति और ठोम यथार्थवादी जीवन-जगत् का सम्बन्ध भी एक ठोम वास्तविकता है । इस वास्तकी स्वीकृति, प्राज के युग की एक लाक्षणिक विशेषता है विकता को सही-मही देख कर, सही-सही जाचना होगा, और यह विशेषता जैन-धर्म म, सत्ता की मूल परिभाषा यानी जैन शब्दो में कहे तो हमें जगत् का सम्यक् दर्शन में ही उपलब्ध हो जाती है।
करते हुए उसका सम्यक् ज्ञान प्राप्त करना होगा । वस्तुओं दूसरी प्राधुनिक विशेषता, जो जैनधर्म मे मिलती है, और व्यक्तियो का सही दर्शन और सही ज्ञान होने पर ही. वह है वस्तु के साथ व्यक्ति का एक यथार्थवादी संबंध। उनके साथ का हमारा सम्बन्ध-व्यवहार, सलूक-सरोकार चीमें ठीक जैसी है, उन्हे ठीक वैमी ही देखने-जानने को सही हो सकता है । इस सही सम्बन्ध-व्यवहार को ही जैन जैन द्रप्टामो ने सम्यक् दर्शन कहा है। मतलब यह हुमा तत्वज्ञो ने सम्यक् चारित्र्य कहा है।