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________________ जैन रास साहित्य का दुर्लम हस्तलिखित ग्रन्थ विक्रम-लीलावती चौपाई ॥ डा. सुरेन्द्र कुमार प्रार्य, उज्जैन उज्जयिनी के प्राचीन-रचित काव्य, नाटक एवं कथा- सुनकर विक्रमादित्य उस राज्य में पहुंचे तथा उस राजसाहित्य में उदयन, वासवदत्ता और विक्रमादित्य ऐसे पात्र कुमारी से विवाह कर स्वदेश लौट आये। हैं जिन पर मातान्दियों तक साहित्य सजन चलता रहा। ग्रन्थ के प्रारंभ मे सरस्वती की वंदना है और यह चंडप्रद्योत (ईसा पूर्व पांचवीं शताब्दी) के काल से लेकर महत्वपूर्ण सूचना दी गई है कि जैन मत्तिशिल्प में सरस्वती कवि कालिदास तक उदयन-वासवदत्ता की कथाएँ, उन पर की प्रतिमा किन लक्षणों पर निर्मित होती थी। "वीणा प्रभिनीत नाटक और काव्य अवंतिका के ग्राम वद्ध सुना पुस्तक धारणी, हंसासन कवि माय प्रात समये नित नम् मोर देखा करते थे। इसी प्रकार, बैताल, भतहरी, सारद तोरा पाय ।" कह कर स्तुति की गई है । तत्पश्चात् पिंगला और विक्रमादित्य की कथाएँ यहां लोकप्रिय रही। मालव वेश और उज्जैन का वर्णन है । जम्बूद्वीप में भरता खण्ड और उसमें तीर्थ-स्थान उज्जैन और वहां के गढ़, मठ, विक्रमादित्य से सम्बद्ध साहित्य उज्जैन के सिंधिया मन्दिरों के वैभव का काव्यात्मक भाषा मे वर्णन है :प्राच्य-विद्या शोध प्रतिष्ठान में इन दुर्लभ प्रतियों में सुरक्षित "नंबूद्वीपे भरत विशाला, मालव वेश सदा सुकाला। है: (१) विक्रमसेन चरित (२) सिंहासन बत्तीसी (३) उज्जेणी नगरी गणे भरी, गढ़, मठ, मन्दिर देवल करी॥ सिंहासन बत्तीसी कथानक (४) सिंहासन बत्तीसी बखर सात भूमि प्रसाद उत्तंग, तोरण मंडप सोहे संग। (५) बैताल पंचविंशति बखर (६) विक्रम लीलावती ठामें ठामें साहकार, इतर पान जिहां जय जयकार ।। चौपाई । अंतिम ग्रन्थ मालवा और विक्रम पर अनेक सूचनायें चारवर्ग बसे तिण पुरं, पवन बत्तीस बसे बऊपरे । देता है। प्रतिष्ठान मे इस कथानक को दो प्रतियाँ है राजा विक्रम देव प्रकार, बंक्षस त्रिस ऊपर सार । जिनके नाम क्रमशः विक्रम-लीलावती चौपाई (ग्रंथ क्रमांक राजा नित पाले राजान, न्याय समंत्रणों उपमान । ५३२) तथा विक्रमाचरित्र लीला चौपाई (ग्रन्थ ग्रंक सबल सौभाग बहुगुण मिली, सरवीर उपकारी भली ॥" ५२८६) हैं। ग्रन्थ के अंत में कहा गया है कि श्रीचंद सूरि के यह एक जैन रास है जिसकी रचना गुजराती मूलक शिष्य अभय सोम खरतर गच्छ के श्रावक थे। ग्रन्थ से हिन्दी भाषा में श्री अभय सोम ने संवत् १७२४ में की थी। मालवा की भौगोलिक स्थिति, प्रतिमा-लक्षण और इस ग्रंथ में विक्रमादित्य को परमार वंशीय माना गया है। विक्रमादित्य का परमार काल से सबन्ध ज्ञात होता है। रास का मुख्य कथानक यह है कि एक बार जब विक्रमा- यह प्रति दुर्लभ है और प्रायः मेरे देखने में और कहीं दित्य रात्रि में नगर-भ्रमण कर रहे थे, उन्हें किसी नाग- नहीं पाई है। रिक के घर से शुकसारिका का यह संवाद सुनाई दिया ४, धन्वन्तरि मार्ग, गली न० ४, कि दक्षिण देश के स्त्री राज्य में पुरुषों से द्वेष करने वाली माधव नगर उज्जन अत्यन्त लावण्यमयी राजकुमारी रहती है। यह वार्ता (म.प्र.)
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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