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________________ मोम् प्रहम् Jনকাল परमागमस्य बीज निबिडजात्यन्ध सिन्परविधानम् । सकलनविलसितानां विरोषमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष २६ किरण १ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर-निर्वाण संवत् २५०२, वि० सं० २०३२ जनवरी-मार्च । १९७६ - परमात्मा का स्वरूप जह सलिलेण प लिप्पड कमलिण-पत्तं सहावपयडीए । तह भावेण ण लिप्पइ कसाय-विसएहि सप्पुरिसो॥ -भावपाहुम, १५४. जैसे कमलिनीपत्र जल में रहता हुमा भी पानी से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार शुद्ध प्रात्मा को प्राप्त करनेवाला विषय-वासनामों में तथा भावों में लिप्त नहीं होता। वह अपने वीतराग-स्वभाव को प्राप्त करता है। जिस्सेस-दोस-रहिमो केवलणाणाइ-परमविभव-बुदो। सो परमप्पा उच्च तषिवरीमो परमप्पा ॥ -नियमसार, ७. वो सभी प्रकार के दोषों रहित शुद्ध, निर्मल पात्मा है पौर केवल-ज्ञान मादि परम वैभव से युक्त है, वह परमात्मा कहा जाता है । उससे विपरीत परमात्मा नही है । स-सरोरा परहंता केवल-गाणेण मुणिय सयलत्था । णाण-सरीरा सिखा सम्वुत्तम-सुक्ख-संपत्ता ॥ ___-कार्तिकेयानुप्रेक्षा, १९८. केवल ज्ञान के द्वारा सब पदार्थों को जानने वाले, शरीर सहित प्रहन्त और सर्वोत्तम सुख को प्राप्त करनेवाले तथा ज्ञानमय शरीरवाले सिद्ध परमात्मा है।
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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