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________________ तन सूकमाल मार जिह मार्यो, तासी मोह रह्यौ थरराय। विकारों का सुन्दर विश्लेषण हुमा है। इनके पद स्वोदजग प्रभु नेमिसंग तप करनौ, बोषक भी हैं। अब मोहि पोर न कछु सुहाय ॥२॥' कविवर ने पद-रचना कब प्रारम्भ की थी, इसका जगतराम हिन्दी के उच्च कोटि के कवि और विद्वान कोई प्रामाणिक उल्लेख तो नहीं मिलता है किन्तु ऐसा थे। वे प्रागरे की प्रध्यात्म शैली के उन्नायक भी थे। प्रतीत होता है कि ये अपने जीवन के अन्तिम चरण में कविवर के सैकड़ों पद प्राप्त होते है। इनके अधि- भजनानन्दी हो गए थे। कांश पद भक्ति, स्तुति और प्रार्थना परक है । कुछ पदो पदों की भाषा पर राजस्थानी एवं बुजभाषा का में जैनाचार का विश्लेषण भी किया गया है। नेमीश्वर प्रभाव परिलक्षित होता है। प्रायः सभी पद सरसता, और राजल के कथानक पर प्राधारित की अनेक पद है भावप्रवणता एवं मामिकता में एक से एक बढ़कर है। जो इनके शृगारिक पदों की कोटि मे भी रखे जा सकते ३, रामनगर, हैं। प्राध्यात्मिक पदों में मिथ्यात्व, राग-द्वेष एव क्रोधादि नई दिल्ली-५५ 000 [पृष्ठ ६३ का शेषांश] यन सहस्रनाम, दुर्वासा ऋषिकृत महिम्न: स्तोत्र, हनुमन्ना- मानना कि माज स्कूल, कालिज मौर विविधाला टक, रुद्रयामल तंत्र, गणेशपुराण, व्याससूत्र, प्रभातपुराण, अधिक है तथा साक्षरता का प्रचार पूर्वापेक्षया व्यापक मनुस्मृति, ऋग्वेद और यजुर्वेद में जैनधर्म का उल्लेख प्रतः ज्ञान बढ़ा है, नितान्त भ्रान्ति है । ज्ञान मात्मा का हमा है और इसकी सनातन प्राचीनता को वैदिक पौरा- धर्म है और साक्षरता लोक व्यवहार चलाने का मा णिक मनीषियों ने साग्रह स्वीकार किया है। है। ज्ञान का मार्ग चारित्र से मिलकर कृतार्थ होता है 'सिन्धुघाटी सभ्यता के अन्वेषक श्रीरामप्रसाद चन्दा और साक्षरता से लोक के बहिरंग-रमणीय नश्पर उप. का कथन है कि-'सिन्धुघाटी में प्राप्त देवमूर्तियां न करणों के उपभोग की प्रवृत्ति प्रधिक जागत होत केवल बैठी हुई 'योगमुद्रा' में है अपितु खड्गासन देव- मोक्ष के लिए 'तुष-माष' मात्र भेदज्ञान रखने वाला साक्षर मर्तियां भी हैं जो योग की 'कायोत्सर्ग' मद्रा मे हैं। न होते हुए भी ज्ञानवान् है और विश्वविद्यालय की । सर्वोच्च उपाधि से अलंकृत भी मद्यमांस निषेवी, व्यवसना. कायोत्सर्ग की ये विशिष्ट मुद्राए 'जन' है। 'प्रादिपुराण' . मौर अन्य जैन ग्रन्थों में इस कायोत्सर्ग मद्रा का उल्लेख भिभूत, स्वपर-प्रत्यय रहित कार्यालयों में कामबचाऊ ऋषभ या ऋषभनाथ के तपश्चरण के सम्बन्ध मे बहुधा अधिकारी तो है, किन्तु ज्ञानी नहीं। साक्षर में मौर किया गया है। ये मूर्तियां ईसवी सन के प्रारम्भिक काल ज्ञानवान में यही मौलिक भेद है। प्रत्येक पदनिक्षेप को मिलती हैं और प्राचीन मिश्र के प्रारम्भिक राज्य काल 'प्रगति' ही नहीं होता, प्रगति अथवा पश्चाद्गति भी हो के समय की, दोनों हाथ लम्बित किये खड़ी मूर्तियों के सकता है। प्राज प्रगति का नाम लिया जाता है। परन्तु रूप में मिलती हैं। प्राचीन मिस्र मूर्तियों में तथा प्राचीन वास्तव में तो यह प्रगति है, अधोगति और 'पश्चाद् गति ही है। जितना व्यसनों से प्राज का मानब अभिभूत है, युनानी 'कुरोह' मूर्तियों में प्रायः खड़गासन में हाथ लटकाये हुए समानाकृतिक मुद्राए है तथापि उनमें देहोत्सर्ग पूर्वकाल में नही था। पहले मनुष्य में सात्विकता पौर का (निःसंगत्क का) वह प्रभाव है जो सिन्धुघाटी की धर्माचरण की प्रवृत्ति थी, भाज भोगलिप्सायें और स्वरामूर्तियों में मिला है।' चरण बढ़ गया है। एतावतापूर्व का मानव स्वस्थ था, प्राज मानसिक रूप से घोर रुग्ण है । अतः चिकित्सा की प्राचीन युग की अपेक्षा माज मूत्ति पूजा की अधिक माज मधिक अावश्यकता है। साक्षरता और ज्ञान का पावश्यकता प्रतीत होती है, क्योंकि ज्ञान के क्षेत्र में प्राज समन्वय होने से श्रेयोमार्ग की उपलब्धि सुलभ हो जाती का मानव पूर्वयुगीन मानव से पिछड़ा हुआ है। यह है। 000 कता है। साक्षरता समन्वय होने छड़ा हुमा है।
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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