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________________ १०४, २५, कि.३ समावेश हो जाता है और किसी का लक्षण सांकर्य दोष की है। धर्मकीर्ति ने सर्वज्ञता पर तीखा व्यंग कसा है। से दूषित नहीं होता। इस दृष्टि से प्रमाण का प्रस्तुत उन्होंने लिखा हैवर्गीकरण सर्वग्राही और वास्तविकता पर पाधारित है। 'पूरं पश्यतु वा मा वा तत्वमिष्टं तु पश्यतु । इन्द्रिय ज्ञान का व्यापार-क्रम (प्रवग्रह, ईहा, प्रवाय प्रमाणं दूरदर्शी चेवेत गघ्रानुपाहे ॥ मौर धारणा) भी जैन प्रमाणशास्त्र का मौलिक है। 'इष्ट तत्त्व को देखने वाला ही हमारे लिए प्रमाण मानस-शास्त्रीय मध्ययन की दृष्टि से यह बहुत महत्व है, फिर वह दूर को देखे या न देखे। यदि दूरदर्शी ही पूर्ण है। प्रमाण हो तो माइए, हम गीधो की उपासना करें, तर्कशास्त्र में स्वतः प्रामाण्य का प्रश्न बहुत चचित क्योंकि वे बहुत दूर तक देख लेते हैं।' रहा है। जैन तर्क-परम्परा मे स्वतः प्रामाण्य मनुष्य सर्वज्ञत्व की मीमासा और उस पर किए व्यंगो का जन का स्वीकृत है। मनुष्य ही स्वत: प्रमाण होता है, ग्रन्थ माचार्यों ने स्टीक उत्तर दिया है और लगभग दो हजार स्वत : प्रमाण नही होता। ग्रन्थ के स्वतः प्रामाण्य की बर्ष की लम्बी अवधि में सर्वज्ञत्व का निरंतर समर्थन मस्वीकृति और मनुष्य के स्वतः प्रामाण्य की स्वीकृति किया है। एक बहुत विलक्षण सिद्धान्त है। पूर्व मीमांसा प्रन्थ का जैन तर्क-परम्परा की देय के साथ-साथ पादेय की स्वत: प्रामाण्य मानती है, मनुष्य को स्वत: प्रमाण नहीं चर्चा करना भी अप्रासंगिक नही होगा। जैन ताकिको मानती। उसके अनुसार, मनुष्य वीतराग नहीं हो सकता ने अपनी समसामयिक तार्किक परम्पराओं से कुछ लिया और वीतराग हुए बिना कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता पौर भी है। अनुमान के निरूपण में उन्होंने बौद्ध और भ-सर्वज्ञ स्वतः प्रमाण नहीं हो सकता। जैन चितन नैयायिक तर्क-परम्परा का अनुसरण किया है। उसमें के अनुसार, मनुष्य वीतराग हो सकता है और वह केवल अपना परिमार्जन और परिष्कार किया है तथा उसे जैन ज्ञान को प्राप्त कर सर्वज्ञ हो सकता है। इसलिए स्वत: परम्परा के अनुरूप ढाला है। बौद्धों ने हेतु क रूप्य प्रमाण मनुष्य ही होता है। उसका वचनात्मक प्रयोग, लक्षण माना है, किन्तु जैन ताकिकों ने उल्लेखनीय प्रन्थ का वाङ्मय भी प्रमाण होता है, किन्तु वह मनुष्य परिष्कार किया है। हेतु का अन्यथा अनुपपत्ति लक्षण की प्रमाणिकता के कारण प्रमाण होता है, इसलिए वह मानकर हेतु के लक्षण में एक विलक्षता प्रदर्शित को है। मानकर हेतु क लक्ष स्वत:प्रमाण नहीं हो सकता। पूरुष के स्वतः प्रामाण्य हेतु के चार प्रकारो की स्वीकृति भी सर्वथा मौलिक हैं: का सिद्धान्त जैन तर्कशास्त्र की मौलिक देन है। समूची १-विधि-साधक विधि हेतु ३-निषेध साधक निषध हतु भारतीय तर्क-परम्परा में सर्वज्ञत्व का समर्थन करने २-निषेध-साधक विधि हेतु ४-विधि साधक निषेध हेतु वाली जैन परम्परा ही प्रधान है। समूचे भारतीय समूच भारतीय उक्त कुछ निदर्शनों से हम समझ सकते है कि वाङ्मय में सर्वज्ञत्व की सिद्धि के लिए लिखा गया विपुल भारतीय चिन्तन मे कोई प्रवरोथ नहीं रहा है। दूसरे साहित्य जैन परम्परा में ही मिलेगा। बोद्धों ने बुद्ध को के चिन्तन का अपलाप ही करना चाहिए और अपना स्वतः प्रमाण मान कर ग्रन्थ को परतः प्रामाण्य माना य माना मान्यता की पुष्टि ही करनी चाहिए, ऐसी रूढ़ धारणा है। किन्तु वे बुद्ध को धर्मज्ञ मानते हैं, सर्वज्ञ नही मानते। भी नहीं रही है। पादान पोर प्रदान की परम्परा प्रचलित पूर्वमीमांसा के अनुसार, मनुष्य धर्मश भी नहीं हो सकता। रही है। हम संपूर्ण भारतीय वाङ्मय में इसका दर्शन कर बौद्धों ने इससे प्रागे प्रस्थपान किया और कहा कि मनुष्य सकते हैं। धर्मज्ञ हो सकता है। जैनों का प्रस्थापन इससे पागे है। दर्शन और प्रमाण-शास्त्र : नई संभावनाएं उन्होंने कहा-मनुष्य सर्वज्ञ हो सकता है। कुमारिल प्रमाण-शास्त्रीय चर्चा में कुछ नई संभावनाओं पर ने समन्तभद्र के सर्वज्ञता के सिद्धान्त की कड़ी मीमांसा दृष्टिपात करना असामयिक नहीं होगा। इसमें कोई संदेह १. प्रमाणवातिक ११३४ : हेयोपादेयतत्वस्य साम्युपायस्य वेदकः । २. प्रमाणवातिक २३५: यः प्रमाणमसाविष्टो न तु सर्वस्य वेदः।
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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