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________________ भारतीय प्रमाण-शास्त्र के विकास में जैन परम्परा का योगदान नहीं कि प्रमाण-व्यवस्था या न्यायशास्त्र की विकमित की है। उसके विकास का मार्ग भिन्न हो सकता है, किन्तु अवस्था के दर्शन का अभिन्न अंग बनने की प्रतिष्ठा प्राप्त जो तथ्य इन्द्रियो से नही जाने जा सकते, उन्हें जानने के की है। यह प्रसदिग्ध है कि उसने दर्शन की धारा को साधन विज्ञान ने उपलब्ध किए है। प्रतीन्द्रिय ज्ञान के प्रवरुद्ध किया है, उसे अतीत की व्याख्या मे सीमित किया तीन विषय है- सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट । इन्द्रियों के है। दार्शनिकों की अधिकाश शक्ति तर्क-मीमांसा मे लगने द्वारा सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट (दूरस्थ) तथ्य नहीं जाने लगी। फलत: निरीक्षण गौण हो गया और तर्क प्रधान । जा सकते । आज का वैज्ञानिक सूक्ष्म का निरीक्षण करता सूक्ष्म निरीक्षण के अभाव में नए प्रमेयों की खोज का द्वार है। तर्क की भाषा में जो चाक्षुष नही है, जिन्हें हम बन्द हो गया। सत्य की खोज के तीन माधन है-- चर्मचक्षु से नहीं देख सकते, उन्हे वह सूक्ष्म-वीक्षण यंत्र के १-निरीक्षण द्वारा देखता है। इस सूक्ष्मवीक्षण यत्र को मै प्रतीन्द्रिय २-अनुमान या तक उपकरण मानता है, जो प्रतीन्द्रिय ज्ञान मे सहायक होता ३ -परीक्षण है । जो इन्द्रिय से नहीं देखा जाता, वह उससे देखा जाता ज्ञान-विज्ञान की जितनी शाखाए है --- दर्शन, भौतिक है। व्यवहित को जानने के लिए 'एक्सरे' की कोटि के विज्ञान, मनो-विज्ञान वनस्पति विज्ञान-उन सबकी यंत्रों का प्राविष्कार हुमा है। उनके द्वारा एक वस्तु को वास्तविक नामो का पता इन्ही साधनों से लगाया जाता पार कर दूसरी वस्तु को देखा जा सकता है। विप्रकृष्ट है। इन्ही पद्धतियो मे हम मन्य को खोजते रहे हैं. जब से (दूरस्थ) को जानने के लिए दूरवीक्षण टेलिस्कोप प्रादि हमने सत्य की खोज प्रारम्भ की है। यंत्रों का विकास हुआ है। जिस प्रतीन्द्रिय ज्ञान के द्वारा दर्शन की धारा मे नए-नए प्रमेय खोजे गए है, वे सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थ जाने जाते थे वह निरीक्षण के द्वारा ही खोजे जा सके है। जब हमारे पात्मिक प्रतीन्द्रिय ज्ञान वैज्ञानिक को उपलब्ध नहीं है. दार्शनिक निरीक्षण की पद्धति को जानते थे, तब प्रमेयो किन्तु उसने उन तीनो प्रकार के पदार्थों को जानने के लिए की खोज हो रही थी। जब नर्क-मीमासा ने बुद्धि की अपेक्षित यात्रिक उपकरण (सूक्ष्म दृष्टि, पारदर्शी दृष्टि प्रधानता उपस्थित कर दी तर्क का अतिरिक्त मूल्य हो और दूरदृष्टि ) विकसित कर लिए है। दार्शनिक के लिए गया, तब निरीक्षण की पद्धति दार्शनिक के हाथ से छुट ये तीनों बातें प्रावश्यक है। दार्शनिक वह हो सकता है जो इन्द्रियातीत सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट तथ्यों को गई । वह विस्मृति के गर्न मे जा कर लुप्त हो गई। प्राज किसी को दार्शनिक कहने की अपेक्षा दर्शन का व्याख्याता उपलब्ध कर सके । किन्तु दर्शन के क्षेत्र में प्राज ऐसी कहना अधिक उपयुक्त होगा। दार्शनिक वे हए है जिन्होंने उपलब्धि नही हो रही है। मुझे कहना चाहिए कि तर्कअपने सुक्ष्म निरीक्षणो के द्वाग प्रमेबों की खोज की है, परम्परा ने जहां कुछ अच्छाइया उत्पन्न की है, वहां कुछ अवरोध भी उत्पन्न किए है। आज हम प्रतीन्द्रिय ज्ञान के स्थापना की है। इन पन्द्रह शताब्दियों में नए प्रमेयों की विषय में संदिग्ध हो गए है। जिन क्षणों में प्रतीन्द्रिय खोज या स्थापना नही हुई है, केवल प्रतीत के दार्शनिकों बोध हो सकता है, उन क्षणों का अवसर भी हमने खो के द्वारा खोजे गा मेयो की चर्चा हुई है, मालोचना हुई है। प्रतीन्टिय-बोध के दो अवसर होते हैहै, खण्डन-मण्डन हुया है। सूक्ष्म निरीक्षण के प्रभाव में १-किसी समस्या को हम अवचेतन मन मे प्रारोइससे अतिरिक्त कुछ होने की प्रामा भी नही की जा सकती। पित कर देते हैळ टिनों के लिए उस समस्या पर सक्षम निरीक्षण की एक विशिष्ट प्रक्रिया थी। उसका अवचेतन मन में क्रिया होती रहती है। फिर स्वप्न में हमें प्रतिनिधि शब्द है-प्रतीन्द्रिय ज्ञाता। वर्तमान विज्ञान ने उसका समाधान मिल जाता है। एक सम्भावना थी नए प्रमेयों. गूण धर्मों और सम्बन्धों की खोज की है, उसका स्वप्नावस्था की, जिसका बीज प्रर्धजागत अवस्था मे बोया कारण भी प्रतीन्द्रिय ज्ञान है। मैं नही मानता कि भाज जाता था, उसका प्रयोग भी प्राज का दार्शनिक नही कर के वैज्ञानिक ने अतीन्द्रिय ज्ञान की पद्धति विकसित नहीं रहा है। दूसरी संभावना थी निर्विकल्प चैतन्य के अनुभव
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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