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________________ मायुर्वेद के माता जनाचार्य रमायनशास्त्र के विद्वान थे। वे अपने पैरो में गगनगामी "गुण सग्रह" ग्रन्थ लिम्वे है। वे उपलक्ष्य है और प्रायोगिता लेप लगा कर विदेह क्षेत्र की यात्रा करते थे, ऐसा व्यवहार के लिये उत्तम ग्रन्थ है । कथानक माहित्य मे मिलता है। (8) उपावित्य- हवी ईसवी के कर्नाटक के दिगम्बर जैन साहित्य के अनुसार पूज्यपाद प्रायुर्वेद जैन वैद्य थे, धर्मशास्त्र एव नायुर्वेद के विद्वान थे । जीवन माहित्य के प्रथम नैन मनीपी थे । वं चरक, पतति को का अधिक ममय चिकित्यक मातीत किया था। कोटि के विद्वान थे। जिन्हे अनेक रसशास्त्र, योगशास्त्र ये राष्ट्रकट ना राजा तग प्रमोघवर्षक गजबंध थे । और चिकित्मा की विधियों का ज्ञान था। साथ ही शल्य इन्होने कल्याण-कारक नामक चिकित्सा ग्रन्थ लिखा है एवं शालाक्य विषय के विद्वान प्राचार्य थे। जो अाज उपलब्ध है। इसमे २६ अध्याय है। इनमे रोग(२) महाकवि धनंजय-- इनका समय वि. स. ६६० लक्षण, चिकित्सा, शरीर, कल्प, अगदतत्र एव ग्मायन का है। इन्होने "धनजय निघटु" लिखा है जो वद्यक के साथ वर्णन है । यह मोलापुर से प्रकाशित है। रोगो का दाषाकोश का ग्रन्थ है । ये पूज्यपाद के मित्र थे और रामकालीन नुसार वर्गीकरण प्राचार्य की विशेषता है। इन्होने जैन थे जैसा यह श्लोक प्रकट करता है - माचार-विचार की दृष्टि से चिकित्मा की व्यवस्था मे मद्य, प्रमाणमकलकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । मास और मधु का प्रयोग नहीं बताया है । इन्होने अमोघ धनजयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपपश्चिमम् ।। वर्ष के दरबार मे मासाहार की निरर्थकता वैज्ञानिक इन्होने विषापहार स्तोत्र लिखा है जो प्रार्थना द्वारा प्रमाणो के द्वारा प्रस्तुत की थी और अन्त में वे विजयी रहे। रोग दूर करने के हेतु लिखा है। मासाहार गंग दूर करने की अपेक्षा अनेक नये रोगों (३) गृणभद्र-ये शक संवत ७३७ से हए है। को जन्म देता है, यह इन्होने लिखा है । यह बात प्राज के इन्होन 'मात्मानुशासन' लिखा है जिसमे आद्योपान्त प्रायवेद युग में उतनी ही सत्य है जितनी उस समय थी। के शास्त्रीय शब्दो का प्रयोग किया गया है और फिर (१०) वीर सिंह-वे १३वी श. ईमवी में ये है। शरीर के माध्यम से प्राध्यात्मिक विषय को ममझाया है। इन्होंने चिकित्मा की दृष्टि से ज्योनिप का महत्त्व लिग्ना इनका वैद्यक ज्ञान वेध में कम नहीं था। है । वीरमिहावलोक इनका ग्रन्थ है। (४) सोमदेव-६ ची श. के प्राचार्य हे यशस्तिलक (११) नागार्जन-इम नाम के कई प्राचार्य हये थे चम्पू मे स्त्रस्य वृन का अच्छा वर्णन किया है। इन्हे जिनमे ३ प्रमुख है। जा नागार्जन मिद्ध नागार्जन थे ६०० वनस्पतिशास्त्र का ज्ञान था क्योकि उन्होंने शिखण्डी ईसवी में हुए है। वे पूज्यपाद के शिष्य थे। उन्हे रमताइव वन की औषधियों का वर्णन किया है । ये रमशारत्र शास्त्र का बहुन ज्ञान था। उन्होन नेपाल, तिब्बत प्रादि के ज्ञाता थे। स्थानों की यात्रा की और वहा रमशास्त्र को फैलाया था। (५) हरिश्चन्द्र-ये धमंशर्माभ्युदय के रचयिता है इन्होंने पूज्यपाद में मोक्ष-प्राप्ति हेतु गविद्या गोनी थी। किन्तु कुछ वैद्यक ग्रन्यो में इनका नाम पाना है । कुछ इन्होने (१) रमकाचपुटम् प्रौर (२) कनपुट तथा सिद्ध विद्वान इन्हें खग्नाद सहिता के रचयिता मानत है। चामुण्डा ग्रन्य लिने थे। भन्न नागाजन पोर भिक्षना(६) शुभचन्द्र -११ वी श के विद्वान थे। इन्होंने गार्जुन बौद्ध मतावलम्बी थे। ध्यान एव यांग के सबन्ध में ज्ञानाणव लिबा है । यह भा (१२) पडित प्राशाधर --- ये न्याय, व्याकरण, धर्म मायुर्वेद के ज्ञाता थे। प्रादि के माथ प्रायुर्वेद माहित्य के जैन मनीपी थे । इन्होंने (७) हेमचन्द्राचार्य-- योगशास्त्र के विद्वान थे। प्रष्टाग हृदय नामक (वाग्भट्ट, जो प्रायुर्वेद के ऋषि थे, (८) शोदल-ये १२वी श. ईमवी मे हुए है। इनका उनके ग्रन्थ की) उद्योतिनी टीका की है, जो अप्राप्य है । क्षेत्र गुजरात था। इन्होने प्रायुर्वेद के "गद निग्रह" और इनका काल वि. सं. १२५२ है। ये मालव नरेश अर्जुन
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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