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________________ वारंगल के काळातीय राज्य संस्थापक जैन गुरु के अवशेषों में से ही प्रायः तत्काल सुप्रसिद्ध विजयनगर हमने अन्यत्र उल्लेख किया है।" साम्राज्य का उदय हुप्रा था।" अभी हाल मे, श्री भंवरलाल नाहटा द्वारा अनुवापूर्व मध्यकालीन दक्षिणापथ के उक्त तीन प्रमख दित 'विविध-तीर्थ कल्प" की प्रस्तावना लिखते समय भारतीय राज्यों में से देवगिरि के यादव जैन धर्म के अन- हमारा ध्यान एक ऐसे विवरण की ओर प्राकषित हुग्रा, यायी नही थे, किन्तु उसके अच्छे प्रश्रयदाता रहे। होयसल जिसकी पोर संभवतया अभी तक किसी अन्य इतिहासराज्यवंश में प्रारम्भ से प्रायः पन्त पर्यन्त जैन धर्म की विद्वान का ध्यान नहीं गया प्रतीत होता, और जिससे प्रल्पाधिक प्रवृत्ति रहती रही, राज्य परिवार के अनेक सिद्ध होता है कि पूर्वोल्लिखित होयसल प्रभति कई राज्यों सदस्य परम जैन और जन बन्धुप्रो के भक्त भी होते रहे। की भाति वारगल के काकातीय की स्थापना का श्रेय भी इस राज्य एवं वश की स्थापना का श्रेय ही, जैसाकि एक जैनाचार्य को ही था। ऊपर कथन किया जा चुका है, एक जैनाचार्य को है।" 'कल्पप्रदीप' (पपरनाम 'विविध तीर्थकल्प) को श्वे ताम्बराचार्य जिनप्रभसूरि ने वि० सं० १३८६ (सन् जहा तक वारगल के काकातीय राज्यवंश का प्रश्न ' प्रश्न १३३२ ई.) की भाद्रपद कृष्ण दशमी बुधवार के दिन है, उसके विषय में प्राधुनिक इतिहासकार प्रायः यही श्री हम्मीर मुहम्मद (सुलतान महम्मद बिन तुगलुक) प्रतिपादित करते है कि वह हिन्दू या शवमत का अनु. के शासनकाल में योगिनीपत्तन (दिल्ली) मे रचकर पूर्ण यायी था। किन्तु ऐसे सकेत भी मिलते है कि काकातीय किया था। इस ग्रन्थ मे कुल कल्प या प्रकरण सकलित नरेश गणपतिदेव (११६८-१२६१ ई.) के शासन काल है, जिनमे से अधिकांश स्वयं जिनप्रभसूरि द्वारा रचित मे तैलूगु महाभारत का रचयिता टिक्कन सोमय्य नामक है-कई एक ऐसे भी है जो अन्य विद्वानो द्वारा रचित है। हिन्दू विद्वान ने राजसभा मे जनो को शास्त्रार्थ में परा- अधिकतर कल्प किसी न किसी पवित्र जैन तीर्थ, पतिशय जित किया था। परिणामस्वरूप राजा कट्टर शेव बन क्षेत्र प्रादि से सम्बन्धित है, और भिन्न-भिन्न समयों मे गया और जैनो पर उसने भारी अत्याचार किये तथा रचे गये है। कुछ एक कल्पो के अन्त में उनकी रचना तभी से इस राज्य मे जैन धर्म की अवनति प्रारम्भ हुई।" तिथि भी दी हुई है, जिनमे से सर्वप्रथम तिथि" वि० स० इससे यह भी विदित होता है कि उसके पूर्व वहां जैन- १३६४ (सन् १३०७ ई.) कल्प नः ११-वैभारगिरिधर्म उन्नत अवस्था में था, और राज्यवंश मे भी जैन धर्म कल्प के अन्त मे प्राप्त होती है, और अन्तिम वि० स० की प्रवृत्ति थी । वस्तुतः इस प्रान्त से सम्बन्धित पुरानी १३८६ (सन् १३३२ ई०) कल्प न०३६ - श्री महावीर 'कैफियतो' (निबद्ध अनुश्रुतियो) के प्राधार पर प्रो० गणधरकल्प के अन्त में सूचित की गई है।“ कल्प न०६३ शेषगिरिराव ने, जो स्वयं आन्ध्र प्रदेशवासी थे, यह प्रमा- मे जो वास्तव मे ग्रन्थ की अन्त्य प्रशस्ति है, ग्रन्थ समाप्ति णित किया था कि वारगल एक समय जैनधर्म का एक की तिथि भी सन् १३३२ ई० प्राप्त होती है। उक्त प्रमुख केन्द्र रहा था।" उस काल में उक्त प्रदेशो के जैन ६३ कल्पो में से ४० प्राकृत भाषा मे रचित है और शेष सम्बन्घो और वहाँ जैनो द्वारा किए गये कार्यकलापों का २३ सस्कृत में । १०. वही, पृ० ३६२..६३; विन्सेंट स्मिथ-माक्सफोर्ड १५. विविध तीर्थकल्प', मुनि जिन विनय द्वारा सम्पदित हिस्टरी प्राफ इण्डिया, पृ० ३०१ तथा सिंधी जैन ग्रन्यमाला के अन्तर्गत १९३४ ई. ११. देखिए हमारी पूर्वोक्त दोनों पुस्तकें । में विश्वभारतीय सिंधी जैन ज्ञानपीठ शाति निकेतन १२. भारतीय इतिहास : एक दृष्टि, पृ. ३३५ द्वारा प्रकाशित । १३. वही, पृ० ३३५-३३६; शेषगिरि राव : प्रान्ध्र. १६. वही, पृ.१०६ कर्नाटक जैनिज्म १७, वही, पृ०२३ १४. प्रमुख ऐति जैन, पृ० १६१ १८. वही, पृ. ७७
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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