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________________ पूजा : मूर्ति की नहीं, मतिमान की ६३ का पंसा' तो उसकी पूर्ति में सहायक है। इस प्रकार मूर्तिपूजा अपने सम्पूर्ण गुण समुदायों के संरक्षण का स्थान मनुष्य की भावना ही उद्देश्य की ओर दौड़ाती है तथा है, एकता प्राप्त करने का देवी संबल है। मनुष्य को प्रमअपनी उत्कट बुभुक्षा की शान्ति चाहती है। यह भावना रता का वरदान देव के चरणों में बैठकर ही मिलता है। 'मद्य' पीने की ओर प्रवृत्त होती है तो लोक में गहित मूर्ति के चरणों में ही उसका देहाभिमान गलित होता है कही जाती है। क्योकि मद्य पीने के परिणाम, उनमें व्यय और प्रात्मा का उदग्र पुरुषार्थ उदय में प्राता है। भव्य किया हा पंसा तथा मल में मद्य स्वयं दुषित है। यह परिणामों को उपस्थित करने में 'मूर्तिपूजा' का प्रमुख प्रात्म-विनाश के लिए त्रिदोष सन्निपात है। उसके पीने स्थान है। जिस प्रकार युद्ध-प्रयाण करने वाला सैनिक से व्यक्ति का चारित्रिक पतन होता है। पतन का मार्ग भरत, बाहुबली, भीम, अर्जुन, हनुमान, चक्रवर्ती खारवेल 'उन्मत्त' ही स्वीकार करता है। अतः देश, जाति, समाज (उड़ीसा), समर-केसरी, श्री चामुण्डराय, महाराणा प्रताप और स्वय प्रात्मा के उत्कर्ष के लिए देवस्थानों की रचना प्रौर शिवाजी [महाराष्ट्र] प्रादि वीरों का स्मरण कर की जाती है। भगवान की प्रतिमा को विधिपूर्वक उन में अपने मे अतुल शक्ति का संचय करता है उसी प्रकार विराजमान किया जाता है। भगवान् की प्रतिमा-मूर्ति , प्रात्मा के पुरुषार्थ से मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने वाला उनका अशेप सम्यक् चारित्र जो मानव जाति के लिए भगवान् की पवित्र प्रतिमा के दर्शन से अपने में सत्साहस श्रेयो मार्ग का निर्देशक है, दर्शक के मन-प्राण पर अकित और निर्मलना को प्राप्त करता है। होता है। जैसे किसी सुन्दरी को देखकर रागी का मन मूर्तिपूजा गुणों की पूजा है। वन्दना के पात्र तो गुण प्राकृष्ट होता है, उसी प्रकार वीतराग प्रतिमा के है। मूर्ति के माध्यम से पूजित भगवान् के गुणों का स्मरण दर्शन मन मे ससार की असारता और विराग की प्रोर व्यक्ति के गुणों को निर्मलता प्रदान करता है। निर्मलता प्रवृत्त होने के भाव प्रबल होते है। यह मनोवैज्ञानिक से परिणाम-विशुद्धि होती है और परिणाम-विशुद्धि हो सत्य है । गाधी जी के तीन वानर' मनुष्य की भावनाओं चावित्र-मार्ग की जननी है। चारित्र से मोक्षसिद्धि होती को मार्गस्थ रखने के सूचक ही है । 'मूर्तिपूजा' शब्द मे है। अतः मूर्तिपूजा को अपदार्थ मानने वाले बहुत भ्रम में जो 'पूजा' शब्द है उसका अभिप्राय है -सत्कार, भक्ति, है। उनकी दृष्टि प्रज्ञान से प्राच्छन्न है। मूर्तिपूजा की उपासना। जिस भगवान् की मूर्ति है उसके गुणों का विशाल पृष्ठभूमि से वे नितात अपरिचित है। मनुष्य बन्दन करना और उन्होंने लोक को अपने उत्तम चारित्र अपने उद्धार के लिए किसी-न-किसी सस्कार की पाठशाला से सन्मार्ग दिखाया इसके प्रति आत्मा की प्रशेष गहरा- में जाता है । देवालय ही वह सस्कार-पाठशाला है । भगइयो से कृतज्ञता ज्ञापन करना तथा उनके समान अपने वान् की मूति ही परमगुरु है । कोई भी सम्यक् चेता भव्य मात्म-लाभ के लिए प्रेरणा प्राप्त करना । मूर्ति का दर्शन, इस पाठशालासे लाभ उठाकर भागवत पद को प्राप्त कर उसकी नित्य पूजा सदा से मानव मे इन्ही उदार विशेष- सकता है। . ताओं की गुणाधान प्रक्रिया को बल प्रदान करती रही है। मूर्तिपूजा की प्राचीनता आज प्रमाणित हो चुकी है। 'मोहनजोदड़ो' और 'हड़प्पा' के उत्खनन से जो ५,००० ___ समाज के धार्मिक उत्थान मे मूर्तिपूजा ने महान् । ___वर्ष प्राचीन वस्तुएं प्राप्त हुई है उनमे भगवान् प्रादिनाथ सहयोग दिया है। बड़े-बड़े समाज धर्म के संगठन से ही (ऋषभदेवकी खडगासन प्रतिमा भी है, जो नग्न है और शक्तिशाली बनते है और अपने प्रात्मिक उत्थान में प्रवृत्त जनो की मूर्तिपूजा को 'सिन्धुधाटी' सभ्यता तक ले जाती है। होते हैं। समाज के बहुधन्धी, बहुमुखी व्यक्ति समुदाय को वैदिक धर्मानुयायियो ने भी भगवान् ऋषभनाथ को ईश्वर का अवतार बताया है और मुक्तिमार्ग का प्रथम मन्दिरों के माध्यम से एक स्थान पर 'मास्था के केन्द्र' उपदेशक स्वीकार किया है। 'भागवत पुराण' मे भगवान् मिलत है। देवालय सार्वजनिक होने से उन्ही मे समाज वृषभनाथ का बड़ा सजीव वर्णन पौराणिक महर्षि व्यासदेव मिलकर वैठ सकता है। वहा पवित्र वातावरण रहता है ने किया है। योगवाशिष्ठ दक्षिणामूर्ति सहस्रनाम, वैशम्पा और भगवान् का सान्निध्य भी। इसीलिए समाज के लिए (शेष प्रावरण पृष्ठ ३ पर)
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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