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________________ जैन संस्कृति की समृद्ध परम्परा ईसा से छह सौ वर्ष पूर्व का समय अनेक वैचारिक कान्तियों से भरा था। सामाजिक एवं धार्मिक समस्याये प्रबुद्ध वर्ग को अनेक प्रकार से विचार करने के लिए प्रवृत कर रही थीं। यूरोप में इसके सूत्रधार थे पा गोरस, एशिया में कन्फ्यूशिस एव लाग्रोस जैसे महापुरुष । तब भारत में इसका नेतृत्व किया भगवान् महावीर स्वामी ने । अनेक विचारधाराएं I भारत मे उस समय तीन प्रबल विचार धाराये कार्य कर रही थी । देवतावाद, भौतिक समृद्धिवाद एव प्राध्यात्मिक वीतरागतावाद । पहली धारा वैदिक ऋषियो की उस आश्चर्य भरी दृष्टि की उपज थी जो उन्ह बादल, वर्षा, बिजली आदि में दिव्य शक्ति का अनुभव करा रही थी दूसरी धारा व्यावहारिक लोगो की थी जो चक्रवर्तित्व के सुखस्वप्न सजोती थी एवं तीसरी ग्रात्मज्ञानियों की थी जो समारको दुःखपूर्ण समझ कर मोक्ष के लिए इच्छुक थी । काल दोष के कारण इन तीनो ही धाराओं मे पथ भ्रष्टता आ गई थी । मास, मदिरा, मैथुन श्रादि फलनेफूलने लगे थे। स्त्री तथा निम्न वर्ग धम्याय के विशेष शिकार थे। पहली केवल भोग की वस्तु थी, दूसरा पशु से नीचा समझा जाकर स्पर्श के योग्य भी नही रहा था । जबकि एक वर्ग पृथ्वी का देवता माना जाने लगा था । रूदिवादी धोर सुधारक दोनों ही अपनी-अपनी जीत के लिए संघर्षरत थे । साधारण मनुष्य की चिंता कम लोगों को ही थी। उस समय एक तरफ वैदिक धर्म की रक्षा के लिए भास्कराचार्य शौनक एवं पाश्वलायन जैसे विद्वान थे तो दूसरी ओर नास्तिकतावाद या 'जड़वाद' के प्रबल समर्थक बृहस्पति एवं प्रजितकेश कम्बली प्रादि श्राचार्य सामने भा रहे थे । न्याय दर्शन के जन्मदाता गौतम ऋषि तथा सांख्य दर्शन के प्रवर्तक मशकरी आदि भी जीवन व जगत् गुत्थियों को सुलझाने के लिए प्रयत्नशील थे। तभी भगवान् महावीर धाये जिन्होने प्रचलित सभी विचारों का मंचन करके समन्वय एवं संशोधन का मार्ग " [ श्री जयन्ती प्रसाद जन, मुजफ्फर नगर पकड़ा, परन्तु प्रात्म-सुधार के साथ। यह विचारधारा तब भी ग्राहत, जिन, यति, वातरशना, व्रात्य तथा श्रमण संस्कृति के नाम से जानी जा रही थी। मगध तथा विदेह की जनता ने इस समन्वयी विचार धारा को आर्य धर्म या जैन धर्म के रूप मे स्वीकर किया तथा इसका प्रसार किया । स्वदेश में जैन धर्म का विस्तार : भगवान् महावीर के समय मे वैशाली के राजा चेटक, प्रदू (उडीमा ) के कुणिक, कलिंग (दक्षिण उड़ीसा) के जितशत्रु वत्म (बुन्देलखण्ड) के शताधीक सिंधु सौवीर के उदयन, मगध (बिहार) के बिसार तथा मागद (मंगूर ) के नाम राजा जीवन्धर के उल्लेखनीय है । प्रसिद्ध इतिहासकार एवं पुरातत्वज्ञ स्वर्गीय गौरी शकर होन्द्र सोभा के अनुसार ऐतिहासिक युग मे सबसे पहले भगवान् महावीर की स्मृति में सम्वत् प्रचलित हुआ [प्राचीन लिपिमाला, पृष्ठ २-३ ] | विदेह के निच्छवि और मन के नाग, नन्द र मौर्य राजवंश, मध्य भारत के काशी, कौशल वत्स, श्रवन्ती तथा मथुरा के शासक, कलिग के सारखी राम्राट्, राजपूताने के राजपूत, उत्तर मे गान्धार, तक्षशिला आदि, दक्षिण में पाय, चेर, चोल, पल्लव, होयसल श्रादि तमिल लोग जैन धर्म के परम भक्त थे। भारत के सिधु पंजाब मालवा के निवासी इण्डोशोथियन (शक) प्रादि जैन धर्म से काफी प्रभावित थे |रा०बी०सी० वा हिस्टो रिकल ग्लीनिम, पृष्ठ ७८) भारत के प्रसिद्ध राजा मनेन्द्र ( Menendra) अपने अन्तिम जीवन मे जैन धर्म में दीक्षित हो गये थे [ 'वीर' वर्ष २, पृष्ठ ४-६ ) । मथुरा के पुरातत्व से विदित होता है कि कनिष्क, दुविष्क और वासुदेव नामक शक राजाओं के राज्यकाल के जैन धर्म की मान्यता बहुत फैली हुई थी। मध्यकाल के राजपूताने के राठौर, परमार, चौहान, गुजरात एवं दक्षिण के गग, कदम्ब, राष्ट्रकूट, चालुक्य, कलचुरि और होयसल राज वंशों का यह राजधर्म रहा । गुप्त, प्रांध्र घोर विजयनगर साम्राज्य काल मे भी इस पर शासकों की कृपा-दृष्टि रही । यही कारण है कि जैन धर्म मध्यकाल में श्रवणबेलगोल (मंसूर) और कारकल
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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