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________________ खजुराहो के पार्थनाय मेन मन्दिर का शिल्पवैभव सम्भव है। यक्ष-यक्षी युगल सभी उदाहरणों में द्विभुज, सादे एवं समरूप है। ऐसा प्रतीत होता है कि मजुराहो मे अभी तक (६४५ ई०) स्वतन्त्र यक्ष-यक्षी युगलो के लाक्षणिक स्वरूपों का निर्धारण नहीं हो पाया था । तीर्थकर मूर्तियों से कही अधिक महत्वपूर्ण गर्भगृह की दक्षिण भित्ति पर बाहुबली मूर्ति है। उत्तर भारत मे बाहुवली मूर्ति का यह सभ्भवतः दूसरा प्राचीनतम उदाहरण है । बाहुबली निर्वस्त्र है और कायोत्सर्ग मुद्रा मे सिहासन पर खड़े है बाहुबली के साथ तीर्थकर मूर्तियों के समान ही सिंहासन, चामरघरों एवं उड्डीय मान गन्धवों जैसे प्रातिहा को भी प्रदर्शित किया गया हैली के सम्पूर्ण शरीर से गाधवी, वृश्चिक, छिपकली एवं सर्प लिपटे है। दोनों पावों में दो विद्या परिया ग्रामूर्तित है जिनकी भुजाओं में बाहुबली के शरीर से लिपटी लावल्लरियों के छोर स्थित है वो बाहुबली प्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ के पुत्र है । इन्होंने राज्य का त्याग कर जगलो मे कठिन तपस्या की थी। तपस्या के परिणामस्वरूप ही इन्हें केवल ज्ञान और निर्वाणपद प्राप्त हुआ था । बाहुबली के शरीर पर माधवी, वृश्चिक, एव सर्प आदि का लिपटा होना बाहुबली के कठोर तपश्चर्या का ही सूचक है । 000 ( पृ० ५२ का शेषांश) सम्राट् श्रेणिक के पुत्रो ने भी भगवान के पास संयम ग्रहण किया था और श्रेणिक का सूकाली, महाकाली, कृष्णा आदि दश" महारानियो ने भी दीक्षा ली थी। धन्ना" और शीलभद्र" जैसे धन-कुवेरो ने भी सयम स्वीकार किया। प्राद्रकुमार" जैसे धार्यतर जाति के युवको ने धौर हरिकेशी" जैसे चाण्डाल जातीय मुमुक्षुषो ने और प्रर्जुन मालाकार " जैसे क्रूर नर-हत्यारों ने भी दीक्षा स्वीकार की थी । गणराज्य के प्रमुख चेटक" महावीर के प्रमुख भावक थे। उनके छ: जामाता" उदयन, दधिवाहन, शतानीक, चण्डप्रोत, नदीवर्धन, बेणिक और नौमल्लवी व नो ४१. प्रन्तकृत्त दशांग | ४२. त्रिष्टलका पर्व १० सर्ग १० पलो. २३६-२४८. ४३. त्रिषष्टिशलाका, पर्व १०, सर्ग १०, श्लो० ८४५ से ५५ पावनाथ मन्दिर पर केवल दो ही जैन पक्षियों ( अम्बिका एव चक्रेश्वरी) को प्रमूर्तित किया गया है । अम्बिका (नेमिनाथ की यक्षी) की दो मूर्तियां प्राप्त होती है, जो क्रमश बाह्य भित्ति और शिखर के समीप उत्कीर्ण है । सिंहवाहिनी अम्बिका के करों मे परम्परा के अनुरूप ही प्राम्रलुम्बि और बालक प्रदर्शित है । चक्रेश्वरी ( ऋषभनाथ की यक्षी) की केवल एक ही मूर्ति प्राप्त होती है, जो मन्दिर के प्रवेशद्वार के ललाटबिम्ब पर उत्कीर्ण है । दशभुजा चक्रेश्वरी का वाहन गरुड़ है और उसकी अधिकतर भुजाओ मे वैष्णवी देवी ( हिन्दू देवी) के प्रायु चक्र, शव एवं गया प्रदर्शित है। वाग्देवी सरस्वती की मूर्तियाँ प्राप्त होती है। सरस्वती की भुजाओं में सामान्यतः वीणा, पुस्तक एवं पद्म प्रदर्शित है । मण्डप, गर्भगृह एवं पश्चिम के संयुक्त जिनालय के उत्त रागो पर द्विभुज की स्थानाकृतियाँ चित्रित है। नवग्रहो द्वार शाखाओ पर हिन्दू मन्दिरो के सदृश ही मकरवाहिनी गगा और कूर्मवाहिनी यमुना की द्विभुज श्राकृतियाँ उत्कीर्णित है । १३३-१ । ४४. सूत्रकृतांग टी० ०२, ०६, १० १३६-१ । ४५. उत्तराध्ययन, प्र०१२ । ४६. प्रन्तकृत दशा । ४७. मावश्यक चणि उत्तरार्द्ध प० १६४ । प्रवक्ता, प्राचीन इतिहास, श्री गांधी डिग्री कालेज, मालटारी आजमगढ (उ०प्र०) लिच्छवी ये मठारह गण-नरेश भी भगवान के परम भक्त थ । इस प्रकार केवल ज्ञान, केवल दर्शन प्राप्त होने के पश्चात् तीस वर्ष तक काशी, कौशल, पांचाल, कलिंग, कम्बोज, कुरु, जागलं, बाहुलीक, गांधार, सिन्धु, सौवीर आदि प्रान्तों परिभ्रमण करते हुए भूले-भटके जीवन के राहियों को मार्ग दर्शन देते हुए उन्होंने प्रपना अन्तिम वर्षावास 'मध्यमपावा' मे सम्राट् हस्तिपाल की रज्जुकसभा मे किया ।" कार्तिक कृष्णा अमावस्या की रात्रि मे स्वाति नक्षत्र के समय बहत्तर वर्ष की आयु भोगकर सिद्ध-बुद्ध धौर मुक्त हुए। ४९ ४८. त्रिषष्टि पर्व २०, सर्ग ६, श्लो० २८८, ५०७७-२ । ४६. प्रावश्यक चूणि, भाग २, १०२६४ । (ख) त्रिषष्टि, पर्व १०, सर्ग ६, श्लो. १८७ प. ६६-२. कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, सूत्र १२८ । पावाए मज्जिमाए, हत्थि वालस्य रष्णी, रंजनसभाए प्रपच्छियं धतरावासं वासावासं उवागये ।
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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