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________________ पहिसा के रूप १४५ वहां भी 'संवरणं' पद को चारित्र रूप महत्त्व दिया गया है, है। वे कहते है-"विलश्यन्तां च परे महाव्रततयो भारेण न कि पंचेन्द्रियों की प्रवृत्ति को चारित्र रूप दिया गया भग्नाश्चिरम्"- अमृतः॥१४२ ॥ प्रर्थात् 'महाव्रत मौर हो, फिर चाहे वह प्रवृत्ति शुभ रूप ही क्यों न हो? तप के भार से बहुत समय तक भग्न होते हुए क्लेश करें बंध में कारण-भूत होने से त्याज्य ही है। यदि प्राचार्य तो करो । भाव ऐसा है कि जब तक पर-निवृत्ति और स्वको प्रसंग (चरित्र पाहुड २७) में प्रवृत्ति इष्ट होती तो प्रवृत्ति रूप महाबत व तप नही तब तक दुःख से छुटकारा वे स्पष्ट लिखते कि पंच-इन्द्रियों को शुभ से सम्बद्ध करना नही, क्योंकि जब सर्वपरिग्रह-बाह्यभ्यन्तर विकल्प मात्र चारित्र है। पर ऐसा उन्होंने लिखा नहीं। उन्होंने तो शुभ- के त्याग में दीक्षा का विधान है तबदीक्षा से संभावित प्रशुभ दोनों प्रवृत्तियों से विमुख 'संवरण' पद दिया। मनि और मौनी अथवा सम्यग्दष्टि के विकल्प कैसा? अन्यत्र एक स्थान पर भी 'रायादीपरिहरणं चरणं'- वहां तो सर्व परिग्रह का त्याग होना ही चाहिये । कहा समय-१५५ ; द्वारा परिहार को ही चारित्र बतलाया न, भी है-'पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता' अर्थात् सर्व संग कि उनमें बिहार को। यदि राग है, चाहे वह शुभ ही है (परिग्रह-पर-ग्रह, विकल्प भी) का त्याग ही 'प्रव्रज्या' तो भी वह परिहार नही, बिहार ही है। अत: अध्यात्म में है। एतावता जहां मौन का सम्बन्ध है, मौनी, मुनि, उस शुभ को भी स्थान नही दिया गया क्योकि वह पर सम्यग्दृष्टि की दृष्टि में अहिंसा प्रादिक महाव्रतों का भाव से ही सबन्धित होगा। प्रात्मभाव से ही है पर-शुभाशुभ विकल्पों से नहीं। कहा जाने में प्राता है कि यदि व्रत में प्रवृत्ति निषिद्ध प्राचार्य नेमिचन्द सिद्धान्तचक्रवति तो चारित्र के लक्षणों है तो अणव्रती की अपेक्षा महाव्रती के असख्यात गुनी में स्पष्ट उल्लेख कर रहे हैं। उनका भाव है कि अध्यात्म निर्जरा सिद्धान्त में क्यों कही गई है ? यह तो व्रत का में चारित्र का जो स्थान है वह व्यवहार में नहीं है और ही प्रभाव है कि उसके असंख्यात गुनी निर्जरा होती है। व्यवहार में चारित्र का जो स्थान है वह अध्यात्म में नहीं पर इस स्थल में भी हमें विचार रखना चाहिये कि उक्त है। जब एक और समस्त क्रियानों को निर्वत्ति चारित्र असंख्यातगुनी निर्जरा में भी विरति' रूप व्रत ही कारण है तो दूसरी ओर प्रवृत्ति को चारित्र समझा जाता है। है 'प्रवृत्ति रूप' नहीं। जैसी-जैसी प्रवृत्ति का प्रभाव है वे लिखते है व्यवहार मेंवसी-वैसी और उस रूप में निर्जरा है। वास्तव में तो 'प्रसुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्तीय जाण चारित्तं । जैन दर्शन में प्रवृत्ति सर्वथा ही निषिद्ध है। साधु व्रत वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिण भणियं ।। द्रव्य ४५। ग्रहण करता है यह तो व्यवहार में कहा जाता है अन्यथा प्रशुभ से निवृत्ति शुभ मे भौर में प्रवृत्ति-ब्रतकरता तो वह निवृति ही है। किसी साघु ने 'अहिंसा समितिगुप्तिप्रादिरूप व्यवहार चारित्र है। फलितार्थ यह महाव्रत' धारण किया इस कथन में भी विचारा जाय तो हा कि उक्त प्रवृत्ति रूप चारित्र उन जीवों की अपेक्षा अहिंसा नामक कोई पदार्थ नहीं-स्वभाव नहीं : वह तो से है जो प्रध्यात्म स्वरूप में नहीं पहुंच पाये है और परहिंसा क्रिया पौर हिंसा भाव के प्रभाव का ही नाम है वश हों, जिन्हें प्रवृत्ति से छुटकारा नहीं मिल सका है। पौर प्रभाव को क्या, कैसे ग्रहण किया जायेगा ? ये सब जिन जीवों ने पर को पर समझा और अनुभवा है, ऐसे प्रश्न हैं, जो हमें अन्ततोगत्वा इसी निष्कर्ष पर पहुंचाते सम्यग्दृष्टि की दृष्टि (माध्यात्मिक दृष्टि) में तो प्रवृत्ति, हैं कि निर्वृत्ति ही चारित्र है, प्रवृत्ति चारित्र नहीं। प्रवत्ति ही है-पर-रूप और विकल्पात्मक है, वहां मौन उक्त सभी बातों से स्पष्ट है कि अध्यात्म में महा- अथवा मुनित्व नही है। उनके लिए तो भाचार्य कहते व्रती-मनि, मौनी व सम्यग्दृष्टि में भेद-बुद्धि का सर्वथा हैप्रभाव है, पर निर्वृत्ति ही है प्रवृत्ति नहीं। इतना ही क्यों 'वहिरन्भन्तरकिरिया रोही भव कारणप्पणासठ्ठ । एक स्थान पर तो प्राचार्य महाव्रत और तप आदि को णाणिस्स जं जिणुत्तं तं परमं सम्मचारित्तम् ॥ द्रव्य ४६ ॥ (पर-सापेक्ष होने के कारण) भार तक घोषित कर देते बहिरंग और प्राभ्यंतर दोनों प्रकार की क्रियामों का
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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