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________________ १२८, २९ कि. ३ अनेकान्त करने से ज्ञात होता है कि इनमे भी प्रायुर्वेद सम्बन्धी विषयों बरोध, ६. मलावरोध, ७. प्रध्वगमन, ८. प्रतिकूल भोजन के पर्याप्त उद्धरण विद्यमान हैं । स्थानांगसूत्र और विपाक. और ६ कामविकार । यदि इन नौ कारणों से मनुष्य सूत्र में प्रायुर्वेद के पाठ प्रकार (अष्टांग प्रायुर्वेद), सोलह बचता रहे तो उसे रोग उत्पन्न होने का भय विल्कुल नहीं महारोगों और चिकित्सा सम्बन्धी विषयों का बहुत अच्छा रहता। इस प्रकार, जैन ग्रन्थों में प्रायुर्वेद सम्बन्धी विषयों वर्णन है। संक्षेप में, यहां उनका उल्लेख किया जा रहा है। का उल्लेख प्रचर रूप में मिलता है, जिससे इस बात की पायुर्वेद के पाठ प्रकार -१. कौमारभत्य (बाल पुष्टि होती है कि जैनाचार्यों को प्रायुर्वेद श स्त्र का मी चिकित्सा), २. काय चिकित्सा (शरीर के सभी रोग और पर्याप्त ज्ञान रहता था। उनकी चिकित्सा), ३. शालाक्य चिकित्सा (गले से ऊपर के भाग में होने वाले रोग और उनकी चिकित्सा- इसे सम्पूर्ण जैन वाङ्मय का अवलोकन करने से ज्ञात मायुवद में 'शालाक्य तन्त्र' कहा गया है). ४. शल्य होता है कि उसमें अहिंसा तत्त्व की प्रधानता है और चिकित्सा (चोड़-फाई सम्बन्धी ज्ञान जिसे प्राजकल अहिंसा को सर्वोपरि प्रतिष्ठापित किया गया है। आयुर्वे'सजरा' कहा जाता है-इसे प्रायुर्वेद में शल्यतन्त्र' की दीय चिकित्सा पद्धति में यद्यपि प्राध्यात्मिकता को पर्याप्त संज्ञा दी गई है), ५. जिगोली विषविधात तन्त्र (इसे रूपेण प्राधार मानकर वही भाव प्रतिष्ठापित किया गया मायुर्वेद में 'अगदतन्त्र' कहा जाता है-इसके अन्दर सर्प, है और उसमें यथासम्भव हिंसा को बजित किया गया है, कीट, जूता, मूषक मादि विषों का वर्णन तथा चिकित्सा किन्तु कतिपय स्थलों पर अहिंसा की मूल भावना की एवं विष सम्बन्धी अन्य विषयों का उल्लेल रहता है), उपेक्षा भी की गई है, जैसे भेषज के रूप में मधु, गोरोचन, ६. भूतविद्या (भूत-पिशाच मादि का ज्ञान और उनके विभिन्न पासव, अरिष्ट प्रादि का प्रयोग। इसी प्रकार, शमनोपाय का उल्लेख), ७. क्षारतन्त्र (वीयं सम्बन्धी बाजीकरण के प्रसंग में चटकांस, कुक्कुटमास, हसशुक्र, विषय पौर तद्गत विकृतियों की चिकित्सा-इसे मायुर्वेद मकरशक्र, मयरमांस मादि के प्रयोग एवं सेवन का उल्लेख में वाजीकरण की संज्ञा दी गई है), ८. रसायन (इसके मिलता है। कतिपय रोगों में शूकरमांस, मृगमसि तथा अन्तर्गत स्वस्थ पुरुषों द्वारा सेवन योग्य ऐसे प्रयोगों एवं अन्य पश-पक्षियों के मांस सेवन का उल्लेख मिलता है। पनववाना का उल्लेख है जो मसामयिक वृद्धावस्था ऐसे प्रयोगों से प्रायुर्वेद में अहिंसा भाव की पूर्णतः रक्षा को रोक कर मनुष्य को दीर्घायु, स्मृति, मेघा, प्रभी, वर्ण, नही हो पाई है । अतः ऐसी स्थिति मे यह स्वाभाविक है। स्वरोदार्य प्रादि स्वाभाविक शक्तियां प्रदान करते हैं।) था कि जैन साधनों के लिए इस प्रकार का प्रायुवदार इसी प्रकार, जैन मागम ग्रन्थों में सोलह महारोग- उसमें वणित चिकित्सा उपादेय नहीं हुई । जैन साधुओ के श्वास, कास, ज्वर, दाह, कुक्षिशूल, भगन्दर, भलस, भगा- अस्वस्थ होने पर उन्हें केवल ऐसे प्रयोग ही सेवनीय थे जा सीर, मजीर्ण, दृष्टिशूल, मस्तकशूल, भरोचक, पक्षिवेदना, पूर्णतः महिंसक, अहिंसाभाव प्रेरित एवं विशुद्ध रीति से कणवदना, कण्डू-खुजली, दकोदर-जलोदर, कुष्ट-कोढ़ निर्मित हों । जैनाचार्यों ने इस कठिनाई का अनुभव किया गिनाए गए हैं। रोगों के चार प्रकार बतलाए गए हैं और उन्होंने सर्वांग रूपेण प्रायुर्वेद का अध्ययन कर उसमें बातजन्य, पित्तजन्य, इलेष्मजन्य और सन्निपातज । परिष्कारपूर्वक अहिंसाभाव को दृष्टिगत रखते हुए आयुर्वेद चिकित्सा के चार अंग प्रतिपादित है--वैद्य, प्रौषधि, रोगी सम्बन्धी अन्थों की रचना की। वे ग्रन्थ जैन मुनियों के मरि परिचारक | जैनागमानुसार चिकित्सक चार प्रकार लिए उपयोगी सिद्ध हए। जैन गहस्थों ने भी उनका के होते हैं -स्वचिकित्सक, परचिकित्सक, स्वपर चिकित्सक पर्याप्त लाभ उठाया। इसका एक प्रभाव यह भी हुआ कि पौर सामान्य ज्ञाता। जैन भागमों में प्राप्त विवेचन के जैन साधुनों, साध्वियों, श्रावकों एवं श्राविकानों की अनुसार रोगोत्पत्ति के नौ कारण होते हैं-१. प्रतिमाहार, चिकित्सार्थ जैन साधुनों-विद्वानों को भी चिकित्सा काय २. महिताशन, ३. प्रति निद्रा, ४. प्रति जागरण, ५. मूत्रा में प्रवृत्त होना पड़ा।
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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