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________________ रयणसार : स्वाध्याय की परम्परा में डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमण प्राचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर परम्परा मे एक ऐसे महान् भी पाप सर्व विषयो के पारगामी थे और इसीलिए हर उज्ज्वल नक्षत्र की भाति अध्यात्म-गगन में पालोकित हैं, विषय पर आपने ग्रन्थ रचे हैं । माज के कुछ विद्वान इनके जिन्होंने वस्तुगामी मूल दृष्टि को स्वानुभव से प्रकाशित सम्बन्ध मे कल्पना करते हैं कि इन्हे करणानुयोग व गणित कर भावी धार्मिक पीढियों को यथार्थता का प्रवबोधन आदि विषयों का ज्ञान न था, पर ऐसा मानना उनका दिया | सत्यकी वास्तविक मशाल उनकी रचनामो में माज भ्रम है क्योंकि करणानुयोग के मूलभूत व सर्वप्रथम भी अपने वास्तविक रूप में प्रज्वलित है, जिसमे प्रकाश ग्रन्थ "पटखण्डामम" पर आप ने एक परिकर्म नाम की ग्रहण कर हम प्रात्म-कल्याण कर सकते है । यथार्थ मे टीका लिखी थी, यह बात सिद्ध हो चुकी है । यह टीका उनकी भूमिका अपूर्व है। प्राज भी उन की वाणी का प्राज उपलब्ध नहीं है। प्राचार्य कुन्दकुन्द स्वय उत्तम चरित्रवान, निग्रंथ अवगाहन कर बड़े-से-बड़े विद्वान एव साघु-मन्त नतमस्तक मुनि थे। उनकी भात्मदष्टि और व्यवहारदष्टि दोनो हो जाते है। इसलिये नही कि उनमें विद्वत्ता के शिविर निर्मल थी। अतएव उन्होंने “समयसार" में मुनि और प्रकाशमान है, वरन् इमलिये कि उनमे प्राध्यात्मिक श्रावक के भेद से दोनों प्रकार के मोक्षमार्ग का उल्लेख गहराई तथा विशदता के स्पष्ट पगतल पानोकमान है। किया है।' "रयणसार" में भी प्राचार्य की यही दृष्टि परम्परा के साक्षात्कार के साथ ही प्रात्मानुभव का साक्षा लक्षित होती है। माचायं कुन्दकुन्द के प्राध्यात्मिक ग्रन्थो कार भी उनमे लक्षित होता है। स्पष्ट प्रमाण स्वरूप का सार "प्रात्मानुभूति" है जो स्वसवेदन में अनुभव करने मात्मानभव के निकप पर अमूल्य रत्नत्रयो (सम्यग्दर्शन, योग्य है । सिवाय प्रात्मानुभूति के शुद्ध प्रात्मा की उपलब्धि सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) को परख कर उन द्रव्य के अन्य उपाय नही है । उनके ग्रन्थो में तथा सभी जनधर्म प्रयों को मूल रूप में विवेचित किया है। उनके सभी के प्राध्यात्मिक ग्रन्थों में यह बताया गया है कि शुद्ध निश्. अन्थो मे प्राचार्यत्व का यह स्पन्दन तथा जिनवाणी का चय नय की दृष्टि से पास्माके अनुभव के विना सम्यग्दर्शन निर्घोष हमे बिना किसी व्यतिकर के सहज शब्दायमान नहीं होता। मास्मतत्त्व मे रुचि, प्रतीति एव स्वसंवेदनगम्य श्रुतिगत होता है। कुछ विद्वान माज भी यह समझते है प्रनभति होना ही सक्षेप मे सम्यग्दर्शन का लक्षण है। कि प्राचार्य कुन्दकुन्द विशुद्ध प्राध्यात्मिक थे, यद्यपि इस इन्द्रियों के सुख के लिए किया जाने वाला तत्वश्रद्धान मे सन्देह की प्रावश्यकता नहीं है कि वे विशुस रूप से मिथ्यात्व है।' "रयणसार" का सस्वर उद्घोष स्पष्ट प्राध्यात्मिक थे, किन्तु व्यवहारी भी शुद्ध रूप से थे। श्री है कि मारमान भति के बिना निश्चय से सम्यक्त्व नहीं भ० जिनेन्द्र वर्णी के शब्दो मे, अध्यात्मप्रधानी होने पर होता और सम्यग्दर्शन के बिना मुक्ति नहीं हो सकती।' १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, पृ० १२६ त पिय मोक्खणिमित्त कुव्वतो भणइ सहिट्ठी ।। २. ववहारिमो पुन णमो दोष्णिवि लिंगाणि भणदि -नयचक्र, ३३३. मोक्खपहे। तथा-समयसार, २७५ : 'धम्म भोगणिमित्त ण दूसो कम्मक्खयणिमित्त ।' णिच्छयणमो दु णिच्छदि मोक्खपहे सवलिंगाणि ।। ४. णियतच्चुवलद्धि विणा सम्मत्तवलद्धि णस्थि णियमेण । -समयसार, ४१४. सम्मत्तवल डि विणा णिव्वाण गस्थि णि यमेण ।। १. इंबियसोक्खणिमित्त सद्धाणादीणि कुणा सो मिच्छो । - रयणसार १७६.
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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