Book Title: Anekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 177
________________ हिन्दी के प्राधुनिक जैन महाकाव्य १५९ आदि छन्दों में संवारा गया है। काव्यारम्भ से पूर्व से पर्याप्त साम्य रखता है, परन्तु काव्य का वर्ण्य विषय मूमिका में बाब कामताप्रसाद जैन ने वेद, उपनिषदादि पूर्णतः पृथक है । 'पार्श्व प्रभाकर' मे कवि ने जैन तीर्थंकर संस्कृति ग्रन्थों के उद्धरणों का उल्लेख करते हुए महाकाव्य परम्परा के २३वें तीर्थकर 'पार्श्वनाथ' के पूर्व जन्मों से के महानायक ऋषभदेव की ऐतिहासिकता प्रमाणित कर लेकर निर्वाण पर्यन्त तक के जीवन को काव्य का प्राधार दी है। भमिका के उपरांत कवि 'मार्तण्ड' जी की शुद्ध बनाया है। संस्कृत भाषा में 'श्रत वन्दना' निबद्ध है, तदन्तर काव्य कवि वीरेन्द्रप्रसादजी ने महाकाव्य का प्रारम्भ प्रारम्भ हुमा है। विवेच्य महाकाव्य मे सर्ग है जिनके मंगलाचरण या प्रभु वन्दना से न करके भारत देश स्थित शीर्षक क्रमशः है-मंगल सगं, पूर्वभन सर्ग, अवतरण सर्ग, प्राकृतिक सुषमा सम्पन्न काशी-राज्य के वैभव वर्णन से उपकार सर्ग, तप सर्ग, उपदेश सर्ग, विजय सर्ग, स्वप्न सर्ग किया है; परन्तु काव्यारम्भ से पूर्व पृथक रूप से 'प्रणत तथा निर्वाण सर्ग । इन नौ सर्गों मे छन्दो की कुल संख्या प्रणाम' शीर्षक से ८ पंक्तियों की स्तुति लिखी है। प्रभु लगभग ७३५ है । महाकाव्य कार ने प्रत्येक सर्ग में छन्दों पार्श्वनाथ के प्रणमन वन्दना को समर्पित इस लघु स्तुति में की उनके प्रकार के अनुसार पृथक् संख्या दी है, जिससे अनुप्रासिक सौन्दर्य दृष्टव्य है-कवि ने 'प्रणत प्रणाम' में क्रम विशृंखलित व सम्भ्रमकारी हो गया है। प्रयुक्त प्रत्येक शब्द का प्रारम्भ 'प' वर्ण से किया है । पौराणिक महाकाव्यो के लक्षणों का निर्वाह करते 'पार्व प्रभाकर' महाकाव्य पर कविवर मुघरदास विरहुए, प्रथम सर्ग का प्रारम्भ मंगलाचरण, वृषभवन्दना एवं चित 'पार्श्व पुराण' का प्रभाव परिलक्षित होता है, कई देवशास्त्र गुरु-स्तुति से किया गया है। घीर, प्रशांत नायक छन्द तो 'पार्श्व-पुराण' के भाषानुवाद मात्र प्रतीत होते तीर्थंकर ऋषभनाथ के साधना एवं अनुचितक प्रधान है। विवेच्य कृति मे सों की कुल संख्या १० है तथा जीवन पर प्राघृत काव्य मे भी कवि ने बहुल घटनाओं तद तर्गत निबद्ध छन्द लगभग १३८५ है। सर्गों का का समावेश करके ग्रन्थ को रोचक व ग्राह्य बना दिया नामकरण अग्रलिखित क्रम मे हुया है-प्रथम सर्ग 'पूर्वाहै। भगवान ऋषभ के साथ-साथ उनके पुत्र चक्रवर्ती भास', दूसरा 'गर्भकाल', तीसरा 'जन्म-महोत्सव', चौथा सम्राट भरत तथा महायोगी बाहुबलि के जीवनवृत्त को सर्ग 'शिशुवय', पांचवाँ 'किशोरवय', पष्ठम मर्ग 'तरुणवय भी प्रस्तुत काव्य में चारु रूप से सयोजित कर लिया है एवं विराग', सप्तम 'पूर्व-भव दर्शन एवं लोकान्तिक देवाऔर कथा प्रवाह अवाधित रहा है । कधि ने प्रत्येक छन्द चन', अष्टम सर्ग 'अभिनिष्क्रमण, तप एवं केवल ज्ञान', के उपरान्त हिन्दी गद्य मे अर्थ व्याख्या दे दी है जिसकी नवम 'धर्मोपदेश' तथा दशम सर्ग 'निर्वाण वन्दना' । प्रबद्ध पाठक के लिए आवश्यकता नही थी। पाश्र्व प्रभाकर' के उपरान्त कई वर्षों तक कोई हिंदी ___'श्री ऋषभ चरित सार' के पश्चात् साहित्यालोक में जैन महाकाव्य साहित्य जगत मे नही पाया, किन्तु अब माने वाला उल्लेख्य हिन्दी जैन महाकाव्य है कवि तीर्थकर भगवान महावीर के पच्चीस-सौवे गिर्वाणोत्सव बीरेन्द्रप्रसाद जैन प्रणीत "पार्श्व प्रभाकर"। प्रस्तुत महा- के उपलक्ष्य मे विगत दो-तीन वर्षों के भीतर साहित्य की काव्य २२ जनवरी, सन् १९६४ मे पूर्ण हो चुका था किंतु कथा, नाटक, उपन्यास प्रादि समस्त विधामो में विपु. मार्थिक कठिनाइयों वश मुद्रित न हो चुका ।' अन्तत सन् लात्मक जैन साहित्य सृजित हुप्रा तथा निरन्तर रचा जा १९६७ में गौहाटी की दिगम्बर जैन पचायत के प्राथिक रहा है। इसी अवधि-अन्तराल मे महाकाव्य विधा मे सहयोग से, श्री अखिल विश्व-जैन मिशन, अलीगंज प्रणीत दो अत्यन्त उत्कृट कृतियाँ प्रकाश में पाई है। (एटा) से प्रकाशित हुआ। प्राकार-प्रकार, भाषा एवं कविवर रघुवीर शरण मित्र विरचित 'वीरायन' तथा डा. शैली-विधा के परिप्रेक्ष्य में अवलोकें तो 'पार्श्व-प्रभाकर' छलविहारी गुप्त कृत 'तीर्थकर महावीर' । कवि के पूर्व रचित महाकाव्य 'तीर्थकर भगवान महावीर महाकाव्यकार रघुवीरशरण मित्र ने अपने 'वा १. 'पार्श्व-प्रभाकर का 'प्राक्कथन'-श्री वीरेन्द्रप्रसाद जैन

Loading...

Page Navigation
1 ... 175 176 177 178 179 180 181