Book Title: Anekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 172
________________ १५४, वर्ष २६, कि० ४ प्रनेकांत हैं । यह ॐकार इच्छित पदार्थ दाता और मोक्ष प्रदाता है। मे बना है, यथा-- मु+अस्ति-स्वस्ति । इसमें 'इकोयउस ऊँकार को नमस्कार हो। ___णचि' सूत्र से इकार के स्थान में वकार हुआ है। उपनिषद्कार के शब्दो में- ॐकारे परमात्मप्रतीके बहुत से लोग 'अस्ति' को त्रियापद मानकर उसका दढ़ामकाम्यूलक्षणां मति सन्तनुयात छांदोग्योपनिपद् थांकर है' या 'हो' अर्थ करते हैं, जो उचित नहीं है, क्योंकि यहां भाष्य ।' ११, १ । इसे 'प्रणव' नाम से भी सम्बोधित 'अस्ति' पद क्रियारूप में नही है, अपितु तिनत प्रतिरूपक किया जाता है, क्योकि यह कभी भी जीर्ण नहीं होता। अव्यय' है। जैसे कि 'अस्तिक्षीरा' में तिनत प्रतिरूपक इसमें प्रतिक्षण नवीनता का संचार होता है और यह अध्यय' है। वैसे 'स्वस्ति' में भी 'अस्ति' को अव्यय प्राणों को पवित्र और संतुष्ट करता है। 'प्राणान् सर्वान् माना गया है, और 'स्वस्ति' प्रव्यय पद का अर्थ परमात्म निप्रणामयतीत्येतस्मात् प्रणवः ।' कल्याण, मगल, शुभ प्रादि के रूप में किया गया है। __ ऊपर कहे गये णमोकार मन्त्र की मंगल-रूपता मन्त्र प्रकृत में उच्चरित 'स्वस्तिक' शब्द भी इसी 'स्वस्ति' के साथ पढ़े जाने वाले माहात्म्य से निविवाद सिद्ध होती का वाचक है । जब 'स्वस्ति' प्रत्यय से स्वार्थ मे 'क' प्रत्यय है। प्रागमों मे प्रत्य अनेको मन्त्रों की मगलरूपता प्राप्त हो जाता है, तब यही 'स्वस्ति' प्रकृत में 'स्वस्तिक' नाम है, पर मुख्यत: दो ही प्रसग ऐसे पाते है, जिनमें मंगल पा जाता है । परन्तु अर्थ में कोई भेद नहीं होता। 'स्वस्ति शब्द का स्पष्टतः उल्लेख है-'णमोकार मन्त्र' और एवं स्वस्तिक' की इस व्युत्पत्ति के अनुसार, जो 'स्वस्ति' है 'मंगलोत्तमशरणपाठ ।' णमोकार मन्त्र के सबन्ध मे कहा वही 'स्वस्तिक' है और जो 'स्वस्तिक' है वही 'स्वस्ति' है। गया है उक्त प्रसंग से ऐसा फलित हुअा कि सभी 'स्वस्ति' 'स्वस्तिक' है और सभी 'स्वस्तिक' 'स्वस्ति' है, अर्थात् 'एमो पंच णमोयारो सम्बपावप्पणासणो । 'स्वस्ति' और 'स्वस्तिक' मे कोई भेद नहीं है। यतःमंगलाण च सव्वेसि पढ़म हवइ मंगल ॥' 'स्वन्ति एवं स्वस्ति। यह पच नमस्कार सर्व पापो को नाश करने वाला पौर सर्व मगलो में प्रथम मगल है। प्राकृत भाषा में 'स्वस्ति' या 'स्वस्तिक' के विभिन्न रूप मिलते है । जिन रूपो का प्रयोग मंगल, क्षेम, कल्याण उक्त विवरण के प्रकाश मे, मंगल कार्यों में 'ॐ' का जैसे प्रशस्त अर्थो मे किया गया है, उनमे कुछ इस प्रकार प्रयोग किया जाना स्पष्टत. परिलक्षित होता है, जो उचित हो है । पर 'स्वस्तिक' के सबन्ध में अभी तक निर्णय नही हो पाया है। कोई इसे चतुर्गति भ्रमण और (१) सत्थि (स्वस्ति) 'सस्थि करेई कविलो' । मुक्ति का प्रतीक मानता चला पा रहा है तो कोई ब्राह्मी --पउमचरिउ, ३५१६२. लिपि के 'ऋ' वर्ण के समाकार मानकर इसे ऋषभदेव का (२) सत्थि (स्वस्ति क्षेम, कल्याण, मंगल, पुण्य प्रतीक सिद्ध करने के प्रयन्न मे है। मत ऐसा भी है कि __ आदि), है ० २।४५, स० २१ । यह 'सस्थापक' के भाव मे है। तात्पर्य यह कि अभी कोई Hom नई (३) सत्थिा (स्वस्तिक) प्रश्न व्याकरण, पृ०६८, निष्कर्ष नही मिल रहा है। अत उसकी वास्तविकता पर सुपासनाह चरिम ५२, श्रा. प्र. सू २७ । विचार करना श्रेयस्कर है। (४) सत्यिक, ग (स्वस्तिक) पाइय सद्द महण्णव स्वस्ति, स्वस्तिक या सांथिया कोष, पंचासक प्रकरण ४।२३ । 'स्वस्तिक' सस्कृत भाषा का अव्ययपद है । पाणिनीय (५) सोत्यय (स्वस्तिक) पाइय सह महण्णव कोष, व्याकरण के अनुसार, इसे वैयाकरण कौमुदी मे ५४ वे पचासक प्रकरण । क्रम पर अपव्यय पदों में गिनाया गया है । यह 'स्वस्तिक' (६) सोवत्थिम (स्वस्तिक) उववाई सूत्र, ज्ञातृ पद 'सु' उपसर्ग तथा 'मस्ति' अव्यय (क्रम ६१) के सयोग धर्मकथा, पृष्ठ ५४ । .

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