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स्वस्तिक रहस्य
0 श्री पद्मचन्द शास्त्री, एम. ए.
प्रास्तिक भारतीयो में, चाहे वे वैदिक मतावलम्बी पढ़ता है । मन्त्र इस प्रकार हैहों या मनातन जैन मतावलम्बी, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र 'णमो अहंताण णमो सिद्धाणं णमो पाइरियाणं । सभी की मांगलिक क्रियाओं में (जैसे विवाह आदि षोडश णमो उवज्झायाण णमो लोए सव्व साहूण ॥' संस्कार, चूल्हा-चक्की स्थापना, दुकानदारों के खाता-बही,
परहन्तो को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, प्राचार्यों तराजू-बांट के महूर्त में) तीन परिपाटियां मुख्य रूप से
को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार और लोक में सर्व देखने को मिलती है। कुछ लोग 'ॐ' लिखकर कार्य प्रारम्भ सायो।
__साधुग्रो (श्रवण जैन) मुनियों को नमस्कार । करते है और कुछ स्वास्तिक अंकित कर कार्य का श्री
ॐ में परमेष्ठी गणेश करते है। इसके सिवाय कुछ लोग ऐसे भी है, जो
___ यदि उक्त मन्त्र को सर्वगुण सम्पन्न रखते हुए, एकादोनों को प्रयोग में लाते है । वे 'ॐ' भी लिखते है और स्वस्तिक भी अकित करते है। ग्रामीण अनपढ़ स्त्रियां भी
क्षर मे उच्चारण करना हो तो 'ॐ' मात्र कह देने से
निर्वाह हो जाता है, क्योंकि 'ॐ' को शास्त्रों में बीजाक्षर इन विधियो को सादर अपनाती है । जैनियों के प्रागमो में 'ॐ' और 'स्वस्तिक' को प्रमुख स्थान दिया गया है।
माना गया है। जिस प्रकार छोटे से बीज मे वृक्षरूप वेदों मे भी ऊँकार को 'प्रणव' माना गया है, और प्रत्येक
होने की सामर्थ्य है, उसी प्रकार 'ॐ' मे पूरे णमोकार वेद मन्त्र का उच्चारण ॐकार से प्रारम्भ होता है।
मन्त्र की सामर्थ्य है, क्योंकि ॐ' में पांचो परमेष्ठी गभित 'स्वस्ति' शब्द भी वेदों मे अनेक बार पाता है जैसे'स्वस्ति न इन्द्रः' इत्यादि । जब एक ओर भारत में इनका
___ 'अरहंता असरीरा पाइरिया तह उवज्झाया मुणिणो
पढ़मक्खर णिप्पण्णो ऊँकारो पंचपरमेष्ठी ॥" इतना प्रचार है, तब दूसरी ओर जर्मन देश भी 'स्वस्तिक' पर से वंचित नही है। वहा स्वस्तिक चिह्न को राजकीय
अरहन्त, अशरीर (सिद्ध), प्राचार्य, उपाध्याय और
मनि, इन पांचों परमेष्ठियों के प्रथम प्रक्षर से सम्पन्न सन्मान मिला हुआ है। गहराई से खोज की जाय तो। अंग्रेजो के क्रास चिह्न मे भी 'स्वस्तिक' की मूलक झलक
'ॐ' है, और यह 'ॐ' परमेष्ठी वाचक है । तथाहिमिल सकती है। सम्भावना हो सकती है कि ईसा की अरहन्त, का म, शरीर (सिद्ध) का प्र, प्राचार्य फाँसी के बाद चिह्न का नामान्तर या भावान्तर कर दिया का प्रा, उपाध्याय का उ और मुनि का म् । गया हो।
प्र+प्रपा (मकः सवर्ण दीर्घः) + ____' के सम्बन्ध में विविध मतावलम्बी विविध
प्रा+प्रा
.) --- विविध विचार प्रस्तुत करते है और विचार प्रसिद्ध भी है
पा+उ-प्रो (ग्राद्गुणः) यथा '3' परमात्मा वाचक है, 'मंगल स्वरूप है' इत्यादि ।
प्रो+म्प्रोम् अनुस्वारयुक्त रूप=ॐ जैनियों की दृष्टि से 'ॐ' पंचपरमेष्ठी वाचक एक लघु
पंच परमेष्ठियों के आद्यक्षरों से निष्पन्न 'ॐ' की संकेत है। इसे पंचपरमेष्ठी का प्रतिनिधित्व प्राप्त है। महिमा इस प्रकार निर्दिष्ट हैवह इस प्रकार जिन शासन मे णमोकार मन्त्र की अपार ऊँकारं बिन्दुसंयुक्त नित्यं ध्यायन्ति योगिन : । महिमा है। प्रत्येक जैन, चाहे वह किसी पन्थ का हो,
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम : ।। हिमालय से कन्याकुमारी तक इस मन्त्र को एक स्वर से बिन्दु सहित ऊंकार का योगीजन नित्य ध्यान करते