Book Title: Anekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 160
________________ १४२, वर्ष २६, कि०४ अनेकान्त धात को गौण कर दिया गया है। पाठक इसका अभिप्राय ही हिंसा है। बे स्पष्ट लिखते हैं-" स्वयमेवात्मात्मानये न लें कि व्यवहारिकी हिंसा हिसा नहीं । अपितु ऐसा मात्मना हिनस्ति प्रमादवान्'-प्रमादी प्रात्मा स्वयं ही भाव ले-कि वह भी अपना घात किये बिना नही हो अपने से अपना घात करता है । वे कहते है - सकती। एतावता अपने परिणाम शुद्ध रखें। प्राचार्य अत्रापि प्राणव्यपरोमणमस्ति भावलक्षणम्"कृत (प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपम् हिसा) सूत्र द्वारा प्राण व्यपरोपण भावरूप है । इसलिए प्रात्मदर्शी मनिप्रतिपादित हिंसा का लक्षण पारमार्थिक और लौकिक सम्यग्दृष्टि के प्रमाद के प्रति मौनी होने के कारण मनदोनों ही दृष्टियों से युक्तिसगत है । जब हम प्राणों का वचन-काय की क्रिया रोककर प्रात्मालीन होने की स्थिति घात करने से लौकिक दश प्राणों (५ इन्द्रिय, ३ बल, पायु मे हिंसा आदि (मावध) का स्वय ही त्याग है। सच्चे और श्वासोच्छथास) का भाव लेते है तब इन प्राणों का मुनि कहो, सम्यक्त्वी कहो, वे ही है। छेद होने से प्राण व्यपरापण (पर-पीडन आदि) व्यवहार जिनवाणी मे जहा हिमादि पच पापों संबंधी रौद्र. में सावध नाम पाते है और जब हमारी दृष्टि तत्व (तत्वं ध्यानों का वर्णन है वहा इन प्रशुभ ध्यानों के सद्भाव का सल्लाक्षणिक) की मोर होती है, तब प्रमाद को सावध विधान पंचम गुणस्थान तक ही है । मनि (षष्ठम्गुणस्थान) संज्ञा दी जाती है, यतः जीव अपना ही घात करता है। में सर्वथा ही नहीं। कहा भी है-तद्रौद्रध्यानमविरत देशप्रात्मरसरसिक निश्चयावलम्बी अहिंसा आदि विरतयोर्वेदितव्यं" अर्थात् रौद्र ध्यान अविरत और देश महाव्रत इसलिए तो धारण करता नहीं कि वह इनके विरत गुण स्थानो में ही होता है । मुनि के अर्थात् षष्ठम कारण पर-घात मादि को कर पुण्य उपार्जन करेगा। गुण स्थानवर्ती के नही होता। इससे यह भी समझना वह तो अपनी दष्टि "निज" में केन्द्रित करने के लिए चाहिए कि मुनि में जोमहाव्रत रूप मे व्रत का विधान है वह "पर"-प्रमाद का परिहारमात्र करता है, और प्रमाद मुख्यतः अभ्यन्तर - मुख्यतः अभ्यन्तर संभाल की दृष्टि से ही है और वास्तव में का परिहार होने में प्रात्म-हिसा का प्रभाव होने पर, मुनि प्रमत्त विरत होने के कारण हिंसा आदि से रहित ही उसके लिए पर-हिंसा का प्रश्न ही नहीं उठता। फिर है। है, अर्थात् जब प्रमाद नही तय हिसा कसी ? यदि कदाचित व्यावहारिकी हिंसा मे भी तो अपनी हिंसा (प्रमाद) की कहा जाय कि अपने व्रतो मे दोष पाने पर मुनिगण को भी प्रायश्चित का विधान किया गया है तो वहां भी दोष ही प्रमुखता है। इसीलिए कहा है -' प्रमत्तयोगादिति । विशेषणं केवलं प्राणव्यपरोपणं नाऽधर्माय इति ज्ञापनार्थम (हिंसा) की उत्पत्ति प्रमाद जन्य ही है और इसलिए (प्रमाद टालने के हेतु) प्राचार्यों ने अहिंसा महाव्रत की अर्थात् केवल प्राण व्यपरोपण अधर्म हेतु नहीं है, अपितु भावनामो में सर्वप्रथम वाङ्मनो गुप्तियो का विधान कर प्रमाद विशेषण ही अधर्म हेतु है । इसका तात्पर्य यह है बाद मे कायगुप्ति को अगभूत ईर्यादि समितियो का उल्लेख कि आत्माभिमुखी का प्रमाद ही उसकी स्वयं की हिंसा है किया है-वाड्. मनोगुप्तीर्यादान निक्षेपण-समित्याऔर इसी के प्रति पूर्ण मौन होना अहिंसा-सावध का वच का लोकित पानभोजनानि पच"। त्याग है। उक्त सभी प्रसगो से स्पष्ट होता है कि निश्चय दष्टि शास्त्रों में जहां प्रमाद के भेदों को गिनाया है वहाँ से मनि-मौनी व सम्यग्दृष्टि पर के प्रति प्रशुभ व शुभ भी किसी मे कोई ऐसी झलक नहीं मिलती जिससे पर में दोनों मे पूर्ण मौन है-वह अपने में ही जागरुक है । इसीकृत-कर्म मात्र हिंसा सिद्ध हो। सभी स्थानों पर स्व-हिंसा लिए "मोनमविकलमुनिवृत्तं तन्नश्चयिकं सम्यक्त्वम्" (प्रमाद जन्य) को ही मुख्य बतलाया है। यदि हिंसा में ऐसा विधान किया गया है। इससे यह भी ध्वनित होता मात्र प्राणव्यपरोपण अभीष्ट होता तो प्राचार्य प्रमाद है कि सच्चा मुनि सम्यक्त्वी ही होता है और सम्यक्त्वी ही विशेषण का समावेश नहीं ही करते । वे कहते हैं-"ननु मनि हो सकता है । शास्त्रों में मुनियो के भेदों मे द्रव्यच प्राण व्यपरोपणाऽभावेऽपि प्रमत्तयोगमात्रादेव हिसेष्यते", लिंगी का जो पाठ पाया है वह केवल जनसाधारण के प्रर्थात प्राण घात के न होने पर भी प्रमाद योग मात्र में बोध को बालिग मात्र की अपेक्षा से दिया गया मालम

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