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माहिता के रूप
होता है, वास्तव में "द्रव्यलिंगी मुनि" शब्द नही केवल साधना के लिए प्रयत्नशील है, समिति वाला है, उसको "द्रव्यलिंगी" समझा जाना चाहिए।
बाहर से प्राणी को हिंसा होने मात्र से कर्मबंध नहीं है, जिसको तू मारना चाहता है वह तू ही है: अर्थात् वह हिसा नहीं है।" जिसको तू परिताप वेना चाहता है वह वही है- "वीरतो पुण जो जाणं कुणति प्रजार्ण व अप्पमत्तो वा ।
पुरुषार्थसिद्धयुपाय में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी तत्थ वि प्रज्झत्यसमा संजायति णिज्जराण चो॥ मात्म-हिंसा को ही प्रमुखता दी है। वे कहते है
वृह भा० ३६३६ ॥" "प्रात्मपरिणामहिसन हेतुत्वात् सर्वमेव हसतत् ।
अप्रमत्त संयमो (जागृत साधक) चाहे जान में (अपअनृतवचनादि केवलमदाहृत शिष्यवोधाय ॥ ४२ ॥ वाद स्थिति में?) हिंसा करे या अनजान में, उसे अतरंग
अर्थात् प्रात्म परिणामो (स्वभाव) की हिसा होने के शुद्धि के अनुसार निर्जरा ही होगी, बन्ध नहीं। कारण ही अन्य प्रवृत्तिया हिमा नाम पाती है। अनत "प्रज्झत्थ विसोहिए, जीवनिकाह संथडे लोए । मादि का विधान भी केवल शिष्यों के वोध के लिए है-- देसियमहिमं गत्त, जिणेहि तेलोक्क दरमीहि ।। सभी हिंसा में गभित हो जाते है । और भी अन्य अनेकों
ओ० नि० ७४७ ॥" दिगम्बर-श्वेताम्बर शास्त्रों में इसी भाव के उल्लेख मिलते त्रिलोकदर्शी जिनेश्वर देवों का कथन है कि अनेकाहैं, जिनमें हिंसा को ही प्रमुखता दी गई है। यथा- नेक जीव समूहों से परिव्याप्त विश्व में साधक का मायाचेव अहिंसा आया हिसत्ति निच्छयो एमो। अहिंसकत्व अन्तर में अध्यात्म विशुद्धि की दृष्टि से ही है, जो होइ अप्पमत्तो अहिंमनों इयरो ॥ प्रो०बि० ७५४ ॥" बाह्य हिंसा या अहिंसा की दृष्टि से नहीं।' ___ निश्चय दृष्टि से प्रात्मा ही हिसा है और प्रात्मा ही "उच्चालियम्मि पा, इरियासमियस्स सकमठाए । महिंसा है। जो प्रमत्त है वह हिसक है और जो अप्रमत्त वावज्जेज्ज कुलिगी, मरिज्जतं जोगमामज्ज ।। प्रो. नि. है वह अहिसक।"
७४८ ।। "नय हिंसा मेत्तेण सावज्जेणावि हिसो होइ ।
यदा कदा ईर्यासमिति लीन साधु के पैर के नीचे भी सुद्धस्स उ संपत्ती अफलाभणिया जिणवरेहि ।। मो०नि० कोट, पतंग प्रादि क्षुद्रप्राणी पा जाते है और मर जाते
७५८॥" हैं । परन्तुकेवल बाहर में दृश्यमान पाप रूप हिंसा से कोई "नय तस्स तन्निमित्तो, बन्धो सुहमोवि देसियो समए । हिसक नहीं हो जाता । यदि साधक अन्दर में राग-द्वेष प्रणवज्जो उपयोगेण सावभावेण सो जम्हा ।। मो० नि. रहित शुद्ध है, तो जिनेश्वर देवों ने उसकी बाहर को
७४६॥" हिंसा को कर्मबध का हेतु न होने से निष्फल बताया है। उक्त हिसा के निमित्त मे उग साधु को सिद्धात मे "जा जयमाणस्सभवे, विराहणा सुत्त विहिसगग्गस्म । सूक्ष्म भी कर्मबन्ध नहीं बताया है, क्योंकि वह अन्तर में सा होइ निज्जरफला, प्रज्जत्थ विसोहि जुत्त स्स ||७५६॥" सर्वतोभावेन उस हिंसा व्यापार में निलिप्त होने के कारण
जो यातानावान् साधक अन्तरा विशुद्धि से युक्त है और अनवदयनिष्पाप है। प्रागविधि के अनुसार ग्राचरण करता है, उसके द्वारा होने "जो य पमत्तो पुरिसो, तस्स या जोगं पडुच्च जे सत्ता। वाली विराधना (हिसा) भी कमनिर्जरा का कारण है।" वावज्जते नियमा, तसि सो हिंसो होई॥ "मरदु व जियदु व जीवी, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिसा।
मो०नि० ७५२ ।।" पयदस्स पत्थि वन्धो, हिमा मेत्तेण समिदस्स ।। प्रवचन जे बिन वावज्जती, नियमा तसिं पि हिसनो सोउ।
३/१७ ।" सावजी उ पनोगेण, सत्वभावेण सो जम्हा ।। बाहर से प्राणी मरे या जिये, अयताचारी-प्रमत्त
प्रो०नि० ७५३॥ को पन्दर मे हिसा निश्चित है । परन्तु जो अहिसा की जो प्रमत्त व्यक्ति है, उसकी किसी भी चेष्टा से जो