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१४४, वर्ष २९, कि०४
भी प्राणी मर जाते हैं, वह निश्चित रूप से उन सबका अपितु पुण्यबन्ध होता है; और जब बन्ध होता है तब हिंसक होता है । परन्तु जो प्राणी नहीं मारे गये हैं वह विचार उठता है कि क्या मुनिव्रत का उद्देश्य बन्ध करना प्रमत्त उनका भी हिसक है क्योंकि वह अन्तर में सर्वतो. था, या संवर-निर्जरा ? और भी 'जीवेसुसाणकम्पो भावेन हिंसावृत्ति (प्रमाद) के कारण सावध है।
उवमोगो सो सुहोतस्स, अर्थात् जीवो मे अनुकम्पा करना "तुमंसि नाम तं चेव जं हंतव्वं ति मन्नसि ।
शुभोपयोग है। तुमसि नाम तं चेव जं परियावेमन्वं ति मन्नासि ॥
यह तो माना जा सकता है कि जब तक साधु निवृत्ति
प्र. चा० १/५/५ ॥ में नहीं तब तक प्रशुभ-प्रवृत्ति न कर के शुभ-प्रवृत्ति करता जिसको तू मारना चाहता है वह तू ही है; जिसको है, पर यह तो मानना ही पड़ेगा कि यह उसका कार्य तू परिताप देना चाहता है वह तू ही है।
कर्तव्य रूप नहीं अपितु शिथिलता-जन्य है, क्योंकि मुनि "जे ते अप्पमत संजया ते णं नो मायारंभा,
को चारित्र-धाम कहा है और वह चारित्र 'स्वरूपेचरणं नो परारंभा, जाव प्रणारंभा ।। (भग० १११)
चारित्र' रूप है। जब तक स्वरूप में रमण नही तब तक घना में अप्रमत्त रहने वाले साधक न अपनी उसका मुनिपद किसी भी दृष्टि से कहो, सदोष ही है, हिंसा करते हैं, न दूसरों की हिंसा करते है। वे सर्वदा क्योंकि सम्यक् चारित्र का उत्कृष्ट स्वरूप ही इस श्रेणी अनारंभ-अहिंसक रहते है ।
का है कि वह पर-माश्रित बाह्य-अभ्यन्तर दोनो प्रकार "प्रज्झत्थ विसोहीए जीवनिकाएहि संथडे लोए । की क्रियानों से विरक्त-विराम रूप है। कहा भी हैदेसियमहिसगत्त जिणेहि तिलोक्क दरसीहिं ।।
संसारकारणनित्ति प्रत्यागर्णस्य ज्ञानवतो ब्राह्यभ्यन्तर
प्रा०नि० ७४७॥ क्रियाविशेषोपरमः सम्यकचारित्रम', यानी संसार का त्रिलोकदर्शी जिनेश्वर देवों का कथन है कि अनेका- नित्ति के प्रति उद्यत ज्ञानवान जीव का वाह्य-प्राभ्यन्तर नेक जीव समूहों से परिव्याप्त विश्व में साधक का दोनों प्रकार की (शुभ-अशुभ) क्रियानों से विराम लेना पहिसकत्व अन्तर से अध्यात्म विशुद्धि की दृष्टि से ही है, सम्यक चारित्र है। व्रत संज्ञा भी विरति को दी गई है बाह्य हिंसा या अहिसा की दृष्टि से नहीं।
प्रवृत्ति को नहीं । कहा भी है--विरत्तिव्रतम् ।' उक्त सभी उद्धरणों से स्पष्ट होता है कि प्रध्यात्म में यदि कोई जीव व्यवहार में हिंसा से विरत' होता है हिंसा-अहिंसा के कथन का साक्षात् सम्बन्ध प्रारम-लक्ष्य से तो उसे कहा जाता है कि अहिमा मे प्रवृत्त हुपा, अर्थात् ही रहा है, बाह्य पर-लक्ष्य से नही। साथ ही यह भी तो जो पहिले हनन् रूप क्रिया कर रहा था वह उससे विरत विचारणीय है कि क्या अध्यात्मरसिक-मौनी या मुनि के होकर पहनन् रूप क्रिया मे प्रवृत्त हो रहा है। पर यह लिये जिस चारित्र का विधान किया गया है वह आत्म- व्यवहार ही है। वास्तव मे तो वह क्रिया कर ही नहीं कल्याण-मोक्ष की दृष्टि से किया गया है या सांसारिक- रहा। जो हिंसा रूप क्रिया मे उसका उपयोग था वह पुण्य-शुभप्राप्ति को दृष्टि से किया गया है ? जहां तक हिंसा से हटा अर्थात् तरिक्रया से विरमित हो गया। उसे सिद्धान्त का प्रश्न है, मुनिव्रत-वीतरागरूपचरित्र धारण उसका विकल्प ही नहीं रहा, और जब विकल्प नही रहा का उद्देश्य, परनिवृत्ति-स्व-प्रवृत्ति रूप है और स्व-प्रवृत्ति तब हिंसा रूप क्रिया की विरोधी 'अहिंसा' रूप क्रिया से में पर-हेतुक प्रयत्न कसा ? यदि कोई जीव 'पर-रक्षारूप' भी उसे क्या सरोकार रहा। वह तो अपने भाव में मा अपनी प्रवृत्ति करता है तो ऐसा समझना चाहिए कि अपने गया। जहां तक प्रवृत्ति प्रौर निर्वृत्ति का सम्बन्ध है दोनों मार्ग में पूर्ण स्वस्थ नहीं। कहा भी है-भूतवृत्तनुकंपा ही परस्परापेक्षी-विरुद्ध होने से एक के विकल्प में दूसरे च सद्वेद्यास्रव हेतवः-(तत्वार्थसार माश्रवप्रकरण),मर्थात के प्रादुर्भाव की सिद्धि करते है। जहां एक है वहाँ दोनों पर मे अनुकम्पा-दया (महिंसा) साता वेदनीय कर्म के (अपेक्षा दष्टि से) ही है। एक स्थल पर चारित्र के 'वर्णन माधव का कारण है, यानी उस दया से निर्जरा नही, में' 'पचिदिय संवरणं' पद पाया है। पाठक विचारेंगे कि