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१४६, वर्ष २६, कि० ४
अनेकान्त
रोष संसार के कारणों-प्राथद-बंध को नष्ट करने वाला मार्ग से अज्ञही समझना चाहिये। जिन व्रतों को मशुभ है और वह जिनेन्द्र देव ने ज्ञानी को बतलाया है। वही नित्ति और शभ-प्रवत्ति रूप में लिया जाने का चलन पूर्ण भोर सच्चा चारित्र है । एतावता ऐसे चारित्र को सा चल चुका है। वास्तव में उनकी स्थिति ससा-र पारण करना अपना कर्तव्य मान प्राध्यात्मिक दप्टि. प्रदान करने तक ही सीमित है और इसीलिये पाचायों प्रवृत्ति मार्ग में सर्वथा दूर-मौनी रहता है और इसी. ने उन व्रतादिकों को प्राश्रव-अधिकार-रूप सप्तम अध्याय लिए वह सम्यग्दृष्टि और मुनि भी है और इसीलिए में ही प्रदर्शित किया है, संवर और निर्जरा रूप नवम मुनित्व में मुक्ति भी है। वह निर्ग्रन्थ है, परिग्रह और अधिकार मे नही । पंचाध्यायी कार भी व्रतादि को सर्वथा सांसारिक वासनामों से विरक्त है। उसमे जो कुछ भी बन्ध का कारण ही घोषित करते है । वे लिखते हैंपाश्रव-बंध की छटा होती है वह सब प्रवृत्ति रूप की ही 'सर्वतः सिद्धमेवैतद्वत बाह्यं दयाङ्गिषु । है-मुनि अथवा मौन रूप की नही। इससे स्पष्ट है कि व्रतमन्तः कषायाणां त्याग: सैषात्मनि कृपा ।। ७५२ ॥' अध्यात्म में अहिंसा प्रादि, स्वकी अपेक्षा से ही है पर की प्राणियो में दया-अहिंसा भाव करना बाह्य (लौकिकअपेक्षा से नहीं। कहा भी है
व्यवहार) व्रत है। वास्तविक ब्रत तो अंतरंग की कषायों 'परमट्टो खलु समयो'-समय सार १५१ ।- (रागद्वेषादि विकल्पों) का त्याग ही है। निश्चय से प्रात्मा ही परमार्थ है । अतः प्रात्मा के ही
अर्थाद्रागादयो हिसा चास्त्यधर्मोवतच्युतिः । सन्मुख होना चाहिए। यदि कोई जीव प्रात्मा का लक्ष्य
अहिसा तत्परित्यागो ब्रतं धर्मोऽथवा किल ।। ७५४ ॥' तो करे नहीं और पाप निवृत्ति कर पुण्य रूप शुभ कर्म
अर्थात् रागादिभाव ही हिसा है, रागादिभाव ही में प्रवृत्त हो, उसे ही कल्याण-परमपद मोक्ष-का हेतु
अधर्म है, और रागादिभाव ही ब्रत-च्युति हैं और रागादिमानने लग जाय-जिन वचनों का लोपकर स्वच्छन्द हो
भावों का त्याग ही हिंसा है, रागादिभावों का त्याग ही जाय-ती उसके ब्रत-तप आदि बाह्याचार बालतप ही
धर्म है, रागादि भावों का त्याग ही व्रत है। कहलायेंगे, क्योंकि
'रूढे शुभोपयोपयोगोऽपि ख्यातश्चारित्रसज्ञया । 'परमम्हि दु पठिदो जो कुणदि तवं वद च धारेई ।
स्वार्थ क्रियामकुर्वाणः सार्थनामास्ति दीपवत् ।। ७५६ ।। सव्वं बाल-तवं बाल-वदं विति सव्वण्हू ।।' -समयसार, १५२
यद्यपि रूढ़ि से शभोपयोग भी चारित्रनाम से प्रसिद्ध 'जो जीव परमार्थ-- प्रात्मा मे स्थिर नही रहते और
है परन्तु ऐसा चारित्र निवृत्ति रूप न होने के कारण बाह्म में व्रत-तप को धारण करते है, उनकी समस्त
निश्चय से चारित्र नहीं है। व्रत-तष रूप क्रियाओं को सर्वज्ञ देव ने बाल-तप
"किन्तु बन्धस्य हेतुः स्यादर्थात्तत्प्रत्यनीकवत् । मौर बाल-व्रत कहा है।' अर्थात् ऐसा तप शुभ मे
नासौ वरं, वरं यः स नापकारोपकारकृत् ।। ७६०॥ प्रवृत्तिरूप होने से संसार का ही कारण है। यदि कोई
रूढ़ि के वश से चारित्र सज्ञा को धारण करने वाला जीव ऐसा माने कि पुण्य की प्राप्ति मे भी मोक्ष हो तो चारित्र, बन्ध का हेतु होने के कारण श्रेष्ठ नहीं है । श्रेष्ठ उसका मानना भ्रम ही है। प्राचार्य कहते है कि
तो वह है जो अपकार अथबा उपकार कुछ भी न करे "परमटि वाहिराजे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छन्ति ।
प्रर्थात श्रेष्ठता परापेक्षीपन मे न होकर स्वाश्रय में ही है संसार गमण हेदू विमोक्ख हेदं अजाणता ॥
पौर शुभ-अशुभ दोनों पर होने से सर्वथा हेय है।
-समयसार, १५४ ॥' 'नोह्यं प्रज्ञापराघत्वान्निर्जरा हेतु रंजसा। जो जीव परमार्थ से विमुख है बे अज्ञानी होने के अस्ति नाबन्धहेतुर्वा शुभोनाप्य शुभा वहः ॥ ७६२ ॥' कारण पुण्य की इच्छा करते है। वास्तव मे पुण्य तो ससार बुद्धि विभ्रम से ऐसा भी विचार नहीं करना चाहिए गमन-परिम्रमण का ही हेतु है । ऐसे जीवों को मोक्ष- कि ऐसा शुभोपयोग रूप चारित्र एकदेश निर्जरा का