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अहिंसा के रूप (प्राध्यात्मिक प्रौर व्यावहारिक)
- श्री पद्मचन्द शास्त्री, एम० ए० दिल्ली, प्राध्यात्मिक-स्वानुभूति रूपी स्वानुभाविकी परिणति पहुंच जाती है तब "सावद्य" के अर्थ की सीमा भी विस्तत में लीन सम्यग्दृष्टि समस्त-वभाविकी-बन्धरूप अर्थात् क्षेत्र को घेर लेती हैं । लोक में "सावद्य" शब्द प्रायः परप्रात्मानुभति में विघ्नभत क्रियाओं के प्रति सर्वथा मौन है। पीडन, हिंसा प्रादि पापाचार और लोकहित क्रियामों मात्माभिमुखी की रुचि पर-पदार्थों में न हो, सर्वथा के भाव में लिया जाता है । परन्तु जहां प्रात्माभिम खता स्वभाव में ही है। प्रकारान्तर से इस तथ्य को हम इस संबंधी मौन प्रकरण है" सावद्य" का अर्थ उक्त न लें। प्रकार कह सकते है कि प्रात्माभिमुखी एक ऐसा मौनी मन-वचन-काय तीनो की उन सभी प्रवृत्तियों में लिया मुनि है जिसके प्रात्मानुभूति के सिवाय बाह्य (साबद्य) जायेगा तो पर-रूप हैं, फिर वे लोक-विरुद्ध अथवा लोक का लेश नही।
विरोधातीत जैसी भी हों। मनि और मौनी दोनों शब्द प्राध्यात्मिक और भाव प्राचार्य कहते हैअभिन्न तो है ही, साथ ही आत्मा के वास्तविक स्वरूप को तत्वं सल्लाक्षणिक सन्मात्र वा यतः स्वयं सिद्धम् । बतलाने में भी समर्थ है, अर्थात् मुनि वह है जो मौनी (पर तस्मादनादिनिधनं स्वःसहायं निविकल्पम् ॥ पंचाध्यायीठ॥ से निवृत्त) हो । जो मौनी नही वह मुनि भी नहीं । कोष
तत्व सत् लक्षणवाला है, सत् मात्र और स्वयं सिद्ध है, कारों ने मौन शब्द का व्युत्पत्तिपुरस्सर जो विश्लेषण किया
इसलिए वह अनादि है, प्रनिधन है, स्व-सहाय पौर है वह मनन योग्य है। वे लिखते हैं
निर्विकल्प है। "मुनेरयं मौन"। मनेर्भावः वा मौनभू । मौनं चाशेष सर्वदयानुष्ठानवर्जनम् । मौनमविकल मुनिवृत्त तन्न
उक्त प्रमाण के प्राधार से सभी द्रव्य स्वतन्त्र मोर श्चायिकं सम्यवत्वम्"।
लक्षण भिन्नत्व को लिये हुए है एतावता अपने में ही हैं । इसका भाव ऐसा हुया कि प्रशेष (सम्पूर्ण) सावद्य' कोई "पर" अन्य किसी "पर" का कर्ता या हानि (पापसहित) के अनुष्ठान का त्याग करना मौन है और दाता नही । यह मौन पूर्णरूप से मुनि का चारित्र है और यह निश्चय यदि प्रमाद है तो वह प्रशुद्ध जीव का अनादि संसार सम्यक्त्व है। जैसे लौकिक व्रती जन को समस्त लौकिक रूप अपना, पौर हिंसा है तो वह अपनी। जब जीव सावद्य क्रियानों के प्रति मौनी होना लाभदायक है। अपनी स्वाभाविकी मौनवृत्ति को छोड़ कर प्रमाद भाव आत्माभिमुखी मनि और सम्यग्दृष्टि को भी प्रात्मसाधक जन्य दोष से प्रात्मानुभूति के विमुख होता है तब वह प्रवृत्तियों के अतिरिक्त सभी विभायो से मोन (विमुखता) अपनी ही हानि -अपने ही हिंसा रूपकर्म (पाप) सावधआवश्यक है। जिसने प्रात्मातिरिक्त समस्त रुचियों कर्म को करता है, उसका मुनित्व भग होता है। पर का (प्रमाद, कषाय और पापरूप) का परिहार किया वही भहित तो व्यवहार से कहा जाता है-निश्चिय में जीव सम्यग्दृष्टि (लब्धिरूप में ही क्यो न हो) है।
का स्वयं का ही बिगाड़ होता है। स्मरण रहे कि प्राध्यात्मिक प्रकरण में मौन का भाव इसी प्रसग में जब हम हिंसा मादि पापों पर विचार केवल वाचिक मौन तक ही सीमित नहीं रहता। वहां तो करते है तब यही फलित होता है कि वहा भी प्राचार्य मन और काय भी गभित हो जाते है, और जब मौन की का अभिप्राय पर.पात प्रादि की प्रमुखता से नहीं, प्रपात सीमा मन-वचन-काय तीनों के व्यापार रुद्ध करने तक हिंसा का मूलभूत अभिप्राय पात्मघात से रहा है और पर १. भवद्यं पाप सह तन वर्तते । पशियति मलिनयति जीवमिति पापम् । कर्मबन्धो अवज्ज सहतेण सोसावज्जो
जोगोत्ति वा वावारो"-मभिः राजेन्द्र कोष ।