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उज्जयिनी की दो अप्रकाशित महावीर प्रतिमाएं
0 डा. सुरेन्द्रकुमार प्रार्य, उज्जैन भगवान् महावीर के जीवन-काल मे ही उज्जयिनी संपूर्ण प्राचीन मालवा मे जैन धर्म का प्रसार उज्जयिनी पश्चिमी भारत के एक महान सांस्कृतिक नगर के रूप मे से ही सम्पन्न हुआ। और यह समद काल हवी से १३वी प्रमुख घ्यापारिक स्थल बन चुका था। जैन ग्रन्थों मे कहा शताब्दी तक अपनी चरम सीमा पर रहा। १३वी शताब्दी गया है कि भगवान् महावीर ने उज्जयिनी मे कठोर में उज्जयिनी का देवधर जैन-संघ का प्रधान था। इससे तपस्या की थी और रुद्र ने अपनी पत्नी सहित इनकी पुष्टि होती है कि उस समय उज्जैन जैन प्रचार का प्रधान तपस्या भंग करने का निष्फल प्रयास किया था। यद्यपि केन्द्र था। उज्जैन जिले के लगभग ४० स्थल मैंने व विद्वानों का मत है कि भगवान महावीर अपने भ्रमण मे पुरातत्त्ववेत्ता पद्मश्री डा. विष्णु श्रीधर वाकणकर ने कभी भी उज्जैन नहीं पाये थे, फिर भी यदि प्रतीकात्मक खोजे हैं। जहां जैन मंदिर व तीर्थंकर प्रतिमाएं हैं, अर्थ लिया जाय तो यह स्पष्ट है कि महावीर के चलाये प्रायः सभी प्रतिमाएं अप्रकाशित हैं। इन स्थानों में जैन जैन धर्म को यहां बड़ी साधना से प्रस्थापित किया गया पुरातत्त्व की दृष्टि से निम्नलिखित स्थान महत्त्वपूर्ण हैं :मोर पूर्व के प्रचलित शैव धर्म ने बाधा डाली, पर वह इस १. उन्हेल २. रुणीजा ३. भहतपुर ४. झारड़ा ५. धुलेद धर्म के चतुर्दिक प्रसार में रोक न लगा सका और जैन ६. कायदा ७. खाचरोद ८. विक्रमपुर ६. हासामपुरा धर्म निर्वाध प्रसारित हया। मौर्यकाल में संप्रति द्वारा इसे १०. इंदौख ११. मनसी १२. सौढ़ग १३. करेड़ी राज्याश्रय में मिलकर पोर फैलाव मिला और यही से वह १४. सुंदरसी १५. इंगोरिया १६. दंगवाड़ा १७.दक्षिण भारत की ओर बढ़ा व दक्षिण भारत मे भी खरसौद १८. नरवर. १६. ताजपुर. २०. टुकराल. पर्याप्त विकसित हुग्रा।
२१. जैथल. २२. पानबिहार' ।
उज्जैन में अखिल भारतीय दिगम्बर सभा के तत्त्वाजैन परम्परामों मे उज्जैन के शासक चंडप्रद्योत को
वधान में एक जैन-मूर्ति संग्रहालय की स्थापना सन् १९३० म का कुसुम कहा गया है। डा. में की गई और निकटवर्ती स्थानो से जैन अवशेष एकत्रित एस. बी. देव के अनुसार, मौर्य सम्राट् संप्रति ने पूर्ण किये गये । इसमें प० सत्यंधर कुमार जी सेठी का योगउत्साह लेकर जैन धर्म का विस्तार पूर्वी भारत से हटाकर दान विशेष उल्लेखनीय है। अब यह संग्रहालय ५८० मध्य व पश्चिमी भारत में किया और एक प्रकार से
मूर्तियों से सम्पन्न है। यहां की दो अप्रकाशित भगवान् उज्जयिनी को ही उसका केन्द्र-बिद् बनाया और दक्षिण महावीर प्रतिमानों का विवरण यहा पर दिया जा भारत में जैन धर्म के प्रसारित होने का मार्ग खोल दिया। रहा है। संप्रति ने प्राचार्य सुहस्तिन के मार्गदर्शन मे उज्जयिनी से संग्रहालय की मूर्ति क्रमांक ३ में प्रथम प्रतिमा है। जैन धर्म का प्रचार एवं प्रसार किया। उज्जयिनी के ही संपूर्ण संग्रहालय की तीर्थकर प्रतिमानों में यह विशेष परम्पराश्रुत एवं अनेक कथामों के नायक विक्रमादित्य कलात्मक है। भगवान् महावीर पद्मासन में बैठे है । नेत्र ने सिद्धसेन दिवाकर के द्वारा जैन-धर्म में दीक्षित होने उन्मीलित हैं और मुखाकृति पर सौम्य भाव व गहन के पश्चात् जन धर्म के प्रसार में विशेष योगदान दिया।
(शेष पृ० १४० पर) १. डा. एस. बी. देव : हिस्ट्री आफ जैन मोनाकिज्म, पृ. ६२. २. प्राच्य विद्या निकेतन, बिड़ला म्यूजियम, भोपाल द्वारा प्रायोजित जैन सेमिनार में पढ़ा गया डा. वाकघरका शोघलेख।