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अन साहित्य और शिल्प में वाग्देवी सरस्वती
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भी समान विवरणों का उल्लेख है। केवल वरदमुद्रा के में द्विभज सरस्वती को स्थानक मुद्रा में पद्मासन पर स्थान पर वीणा के प्रदर्शन का निर्देश है ।
मामूर्तित किया गया है। पद्मासन के दोनो मोर मंगलभगवती वाग्देवते वीणापुस्तकमौक्तिक क्षवलपश्वेताज- कलश उन्कीर्ण हैं । सरस्वती की भुजागो मे पन मौर मजितकरे।
-- प्राचारदिनकर पुस्तक प्रदर्शित है। सरस्वती भामहल, हार, एकावली श्वेताम्बर ग्रंथो के विपरीत दिगम्बर ग्रन्थ प्रतिष्ठा. एव अन्य सामान्य अलंकरणो से सज्जित है। द्विभुज तिलकम् (१५४३ ई.) में सरस्वती का वाहन मयर सरस्वती की एक अन्य मूर्ति राजस्थान के ही राणकपुर बताया गया है। प्रतिमानिरूपण सम्बन्धी ग्रंथो के अध्ययन जैन मन्दिर (जिला पाली) से प्राप्त है। इसमे सरस्वती से स्पष्ट है कि हमवाहना (कभी-कभी मयूरवाहना) सरस्वती को दोनों हाथो से वीणावादन करते हुए दर्शाया गया है। चतुर्भुजा होंगी और उनके करो मे मख्यतः पुस्तक, वीणा समीप ही हसवाहन उत्कीर्ण है। तथा पद्म प्रदर्शित होगा।
सरस्वती की सगमरमर की एक मनोहारी प्रतिमा मूर्त प्रकनों में :
राजस्थान के गगानगर जिले के पल्ल नामक स्थान में है। जैन परम्परा मे सरस्वती की मूर्तियों का निर्माण १०वी-११वी शती ई० को इस मूर्ति मे चतुर्भूज सरस्वती को कुषाण-युग से निरन्तर मध्ययुग (१२वी शती ई०) तक साधारण पीठिका पर खड़ा दर्शाया गया है। पीठिका पर सभी क्षेत्रों में लोकप्रिय रहा है। मूर्त चित्रणो मे सरस्वती हमावाहन पार हाय ।
हमावाहन और हाथ जोड़े उपासक प्राकृतियां निरूपित है। को मुख्यतः तीन स्वरूपो मे अभिव्यक्त किया गया है - अलकृत कांतिमण्डल से युक्त देवी के शीर्ष भाग मे तीर्थकर द्विभुज, चतुर्भुज और बहुभुज । ग्रथों के निर्देशों के अन- की लघु प्राकृति उत्कीर्ण है । देवी ऊर्ध्व दक्षिण और वाम रूप ही मूर्त अकनो मे सरस्वती का वाहन हंस (या मयर) करो मे क्रमश: सनालपद्म और पुस्तक प्रदर्शित है, जब है और उनकी भुजाओं मे मुख्यतः वीणा, पुस्तक एवं कि निचले करों में वरद-प्रक्षमाला और कमण्डल स्थित पद्म प्रदर्शित है। सरस्वती को या तो पद्म पर एक पैर है। सरस्वती के दोनों पाश्वों में वेणु और वीणावादिनी लटकाकर ललित मद्रा में पासीन निरूपित किया गया है. स्त्री प्रकृतियां आमूर्तित है। सरस्वती मूर्ति के दोनों या फिर स्थानक मद्रा मे ग्वडे रूप में।
पावों और शीष भाग मे अलकृत तोरण उत्कीर्ण है, सरस्वती की प्राचीनतम मूनि कुषाणकाल (१३२ ई०) जिस पर जैन तीर्थकरों, महाविद्या प्रो, गन्धर्वो और गजकी है, जो मथुरा के ककाली टीले से प्राप्त हई है। जन ध्यालो की प्राकृतियाँ उत्कीर्ण है। देवी कई प्रकार के परम्परा को यह सरस्वती-मूर्ति भारतवर्ष मे सरस्वती- हारों, करण्डमुकुट, वनमाला, धोती, बाजूबन्द, मेखला, प्रतिमा का प्राचीनतम ज्ञात उदाहरण है। द्विभुज सरस्वती कगन और चड़ियो जैसे अलकरणो से सुशोभित है। को दोनों पैर मोडकर पीठिका पर बैठे दर्शाया गया है। मूति सम्प्रति बीकानेर के गगा गोल्डेन जुबिली संग्रहालय देवी का मस्तक और दक्षिण भुजा भग्न है। देवी की (क्रमांक २०३) मे है । समान विवरणो वाली कई मूर्तियाँ वामभुजा मे पुस्तक प्रदर्शित है। भग्न दक्षिण भजा मे खजुराहो (मध्यप्रदेश), तारगा (गुजरात) एव विमलअक्षमाला के कुछ मनके स्पष्ट दिखाई पड़ते है। सरस्वती वसही और सेवाड़ी (राजस्थ न) जैसे जन स्थलो मे है । के दोनों पाश्वों से दो उपासक आमूर्तित है, जिनमे से एक ऐसी एक मूर्ति राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली (क्रमाककी भुजा मे घट प्रदर्शित है और दूसरा नमस्कारमद्रा मे १।६।२७८) में मी शोभा पा रही है। अवस्थित है। उल्लेखनीय है कि इस मूर्ति के बाद आगामी झांसी जिले के अन्तर्गत देवगढ़ मे भी ग्यारहवी शती लगभग ४५० वर्षों तक, यानी गुप्तवश की समाप्ति तक, ई० की एक मनोज्ञ सरस्वती-मूति है। जटामुकुट से जैन परम्परा की एक भी सरस्वती-मूर्ति प्राप्त नही होती। सुशोभित चतुर्भुज सरस्वती स्थानक मुद्रा में सामान्य सरस्वती-मूर्ति का दूसरा उदाहरण सातवी शती ई० का पीठिका पर खड़ी है । सरबती की भुजाप्रो मे प्रक्षमालाहै। राजस्थान के वसतगढ़ नामक स्थान से प्राप्त मूर्ति व्याख्यानमद्रा, पद्य, वरदमुद्रा और पुस्तक प्रदशित है ।