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पारंगल के काकातीय राज्य संस्थापकन गुरु
कोई सामान्य स्त्री नहीं थी, वरन् वे तो स्वय भगवती प्रवेश नहीं पा सकता । जो विशिष्ट बलशाली एवं साहसी पद्मावती देवी थीं जो तुझे प्रत्यक्ष हुई। मैं तुझे एक पम है वे ही शिलाद्वार खोलकर भीतर जाते है और देवी लिखकर यह पत्र देता हूं तू तुरन्त वापस जा और देवी सदन में भगवती की भक्तिपूर्वक उपासना करते है। अन्य को वह पत्र दिवाना ।' गुरु का प्रादेश मानकर वह पत्र गुफाद्वार पर ही देवी की पूजा करके अपने मनोरथ सिद्ध सहित फिर मठ में पहुचा और पत्र देवी को समर्पित कर करते है। दिया । उसमे लिखा था कि 'मुझे अष्ट सहस्र हाथी, उक्त माधवराज कंकति ग्राम" का निवासी था। नव कोटि पदाति, एक लक्ष रथाश्व और विपुल कोश उसके वंशज-पुरटिरित्तमराज-पिण्डि कुण्डिराज-प्रोल्लराज प्रदान करो।' भगवती ने पत्र पढ़कर उस युवक को एक रुद्रदेव -गणपतिदेव की पुत्री रुद्रमहादेवी, जिसने पैतीस वर्ष अत्यन्त तेजस्वी अश्व दिया और कहा कि 'तुझे जो पत्र राज्य किया, उसके पश्चात् प्रताप-रुद्रये प्रसिद्ध काकतीय में लिखा है, प्राप्त होगा, यदि तू घोड़े पर चढ़कर द्रुतवेग नरेश हुए हैं । यह पारामकुण्ड की पद्मावती का जिनसे चला जाएगा और पीछे मुड़कर नही देखेगा।" उसने प्रभसूरि ने जैसा सुना (यथाश्रुतम्) वैसा ही लिखा है। ऐसा ही किया, किन्तु बारह योजन ही जा पाया था कि मम्भव है कि उल्लेखित गुफाद्वार के शिलापट्ट पर पीछे घटे-घड़ियाल मादि का तुमुलख सुना और कौतूहल- देवी के अतिशय का उपरोक्त विवरण अकित रहा हो । वश पीछे मुड़कर देखने लगा । घोड़ा वहीं स्थिर हो गया।
अंतिम राजा प्रतापरुद्र ने १२६६ से १३२६ ई. यही उसके राज्य की अन्तिम सीमा हो गई।
तक राज्य किया था और उसके पूर्व उसकी मातामही तदनन्तर उस परम जैन माधवराज ने नगर में प्रविष्ट
रुद्र महादेवी ने १२६१ से १२६६ तक राज्य किया होकर देवी के भवन मे जाकर उसकी पूजा की। फिर
था। सन् १३०८.६ मे अलाउद्दीन खिलजी की सेनामो पानमत्कुण्ड या प्रामरकुण्डर नगर मे पाकर राज्यलक्ष्मी
ने वारंगल पर प्राक्रमण किया और लूटपाट की थी और का उपभोग और प्रजा का पालन न्यायपूर्वक किया।
१३२१-२२ मे जूनाखाँ (सुहम्मद बिन तुगलक) ने तो उसने इष्टदेवी पद्मावती का स्वर्णमयी दण्ड-कलश-ध्वजादि राजा को हराकर बन्दी बना लिया था, किन्तु फिर से चमचमाता, ऊचे शिखर वाला मनोरम प्रासाद बनवाया
राज्य का कुछ भाग और बहुत-सा धन लेकर छोड़ दिया और भक्तिपूर्वक देवी की नित्य पूजा होने लगी।
था । इससे लगता है कि जिनप्रभसूरि ने इस कल्प की जिन प्रभसूरि कहते है कि भुवनव्यापी महात्म्य और रचना १३०० और १३०८ ई० के बीच किसी समय की अमन्द तेजवाला भगवती का वह मन्दिर प्राज भी वहां थी। अतएव उनका यह विवरण बहुत कुछ समसामयिक विद्यमान है और भव्यजन उसकी पूजा भी करते है। है। एक जीवित समकालीन राज्य एवम् राज्यवंश के किन्तु मन्दिर तक पहुंचने के लिए पर्वत की एक गंभीर सम्बध में ततःप्रचलित एव लोकप्रसिद्ध अनुश्रुति को गुफा को पार करना पड़ता है । गुफाद्वार पर एक भारी प्राचार्य ने निवद्ध किया है, अतएव उसकी ऐतिहासिकता विशाल शिलापट्ट लगा है जिसके कारण हर कोई उसमें
(शेष पृ० १३६ पर) २२. पारामकुण्ड -प्रामरकुण्ड -पानमकुण्ड से अभिप्राय २३. भारतीय विद्या भवन द्वारा प्रकाशित भारतीय इति
आन्ध्रदेश के प्रसिद्ध एवं अतिप्राचीन जैन केन्द्र हास (भाग ५, पृ० १९८) मे इस ग्राम का नाम रामकोण्ड अपरनाम रामतीर्थ या रामगिरि से रहा काकतिपुर दिया है और कारिकल चोल को इसका प्रतीत होता है। तेलुगु भाषा की अनभिज्ञता से मूल निर्माता बताया है; काकातीय वंश का अपर'कोण्ड' का कुण्ड हो गया और प्रतिलिपिकारों ने नाम दुर्जय वंश दिया है और उसे शूद्रजातीय बताया 'राम' का प्राराम, प्रामर, प्राममत् प्रादि कर दिया । है; जो वंशावली ही उसमे भी विविधतीर्थकल्प में 'रामकोण्ड' के लिए देखें हमारी जैना सोर्सेज प्राफ उल्लिखित प्रथम तीन नाम नही है, शेष है, बल्कि दो हिस्टरी प्राफ एन्थेट इण्डिया, पृ. २०३
कुछ मतिरिक्त भी।