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१३२, वर्ष २६, कि० ४
अनेकान्त
ग्रंथ का कल्प संख्याक ५३, प्रामरकण्ड पावती देवी के छद्म से मुक्त जिनका मन था, जिनका हृदय विषयसुख कल्प"" है जो संस्कृत भाषा मे निबद्ध है और स्वयं ग्रन्थ- वांछा से क्षुभित नहीं था, जो सहृदय जनों के हृदयों को कार प्राचार्य जिनप्रभसूरि विरचित है, किन्तु इस कल्प के आह्लादित करते थे, कामविजेता थे, जिन्होंने विस्मयकारी रचनाकाल का कोई सक्त उसमे नही है। प्रथ के प्रारम्भ चरणचयो से पद्मावती देवी को स्ववश करके सिद्ध कर में मंगलाचरण के रूप मे 'तिलग नामक जनपद के लिया था-उसका इष्ट प्राप्त कर लिया था, ऐसे मेघमाभूषण, प्रमरकुण्ड नामक सुन्दर नगर मे गिरिशिखर चन्द्र नाम के अनेकान्ती दि० ब्रतिपति अपने शिष्य समुपर स्थित भवन (देवालय) के मध्य भाग में विराजमान दाय के साथ निवास करते थे। एकदा श्रावकगोष्ठी की पद्मिनीदेवी (पद्मावती देवी) की जय मनाई है । तदन्नतर प्रार्थना पर उन्होने किसी अन्य स्थान के लिए विहार समस्त गुणगणों के प्राकर, प्रान्ध्रदेश के प्रामरकुण्ड नगर किया । कुछ ही दूर चले थे कि अपने हाथ में अपनी के सौन्दर्य का वणन किया है। अनेक रमणीक भवनों एव पुस्तक (जो हस्ताभरण रूप ही थी) न देखकर बोले कि प्रासादों की सुव्यवस्थित पंक्तियो से सुसज्जित, नानाविध अहा ! प्रमादवश वह अपनी पुस्तक पीछे मन्दिर वृक्षों से भरे उद्यानो एवं वाटिकाओं से अलंकृत, निर्मल में ही भूल पाए है । प्रस्तु, उन्होने माधवराज नामक जलपूरित सरोवरों से शोभित, शत्रों को शोभित करने अपने एक क्षत्रियजातीय छात्रशिष्य को उक्त पुस्तक को वाले दुर्गम दुर्ग से युक्त इस उत्तम नगर का कहां तक लाने के लिए भेजा। वह छात्र दौड़ा-दौड़ा मठ मे गया, वर्णन करें ? उसकी पण्यबीथिया (बाजार) करवीर आदि किन्तु भीतर पहुचने पर उसने देखा कि अद्भुत रूपवती सुगन्धित पुष्पों से, मोठे इक्षुदण्डों, मोटे-मोटे केलों, चङ्ग कल्याणी स्त्री उक्त पुस्तक को अपनी गोद मे रखे बैठी है । नारङ्ग, सहकार, पनस, पुन्नाग, नागवल्ली, पूग, उत्तम उस प्रक्षुब्धचेता निर्भीक युवक ने स्त्री की जघा पर से नारिकेल प्रादि स्वादु खाद्य फलों से जो ऋतु-ऋतु मे पुस्तक उठानी चाही तो क्या देखा कि पुस्तक तो स्त्री के फलते है और दशो दिशानों को सुवासित करते थे, उत्तम कंधे पर रखी है । तब उस छात्र ने उक्त स्त्री को माता शालि-धान्यादि, पट्टांशुक (रेशमी वस्त्रों) मुक्तामो एव मानकर पुत्रवत् उसकी गोद मे पैर रक्वा और पुस्तक नानाविध रत्नों से भरी हुई थी। इस देश की यह राज- उसके कन्धे पर से उतार ली। देवी ने यह जानकर कि धानी 'मुरंगल'" तथा 'एकशिलापत्तन' नामो से प्रसिद्ध यह युवक राज्यारोहण करेगा, उससे कहा कि 'वत्स ! मैं थी। नगर के निकट सब अोर से रमणीक ; अपने मौन्दर्य तेरी साहसिकता को देखकर सन्तुष्ट हुई । जो चाहे, वर से पर्वराज सुमेरु का गर्व खर्व करने वाला, पृथ्वी का मांग।' छात्र ने उत्तर दिय। 'मेरे जगद्वन्द्य गुरुदेव ही मेरे अलकार विष्णुपदचुम्बि शिखर ऐसा एक पर्वत था। उसके समस्त मनोरथो को पूर्ण करने में समर्थ है, फिर मैं और ऊपर ऋषभ, शान्तिनाथ आदि जिनेन्द्रो की प्रतिमानो क्या चाहूं ? और पुस्तक लेकर वह गुरु की सेवा मे प्रा से अलंकृत, मनुष्यो के हृदयो को आह्लादित करने वाले उपस्थित हुअा, तथा मन्दिर मे जो घटा था वह भी कह जिनालय विद्यमान थे । उस पवित्र जिनालय मे, सर्व प्रकार सुनाया । तब उन क्षपणक गणाधिपति ने कहा 'भद्र ! वह १६. वही पृ० ६८-६९
विविधतीर्थकल्प का भूलपाठ 'उरंगल' रहा होगा। २०. मान्ध्रदेश का यह भाग-तेलंग-तेलगाना कहलाता स्वय वारंगल भी मूल नाम 'मोरुक्कुल' का अपम्रष्ट
रहा है, किन्तु इस नाम का प्राचीन मूलरूप त्रिलिंग रूप है (ोरुक्कुल-उरुकुल-उरगल-पौरगल-वारगल) रहा प्रतीत होता है। एक त्रिकलिंगाधिपति की और उसका अर्थ तेलुगु भाषा में एकाकी पर्वत होता पूर्वी समुद्रतट पर स्थित राजधानी रत्नसंचयपुर मे है, जैसाकि स्मिथ साहब ने लिखा है (माक्सफोर्ड
अकलक देव का बौद्धो के साथ शास्त्रार्थ हमा था। हि० इ०, पृ. २८६ फुटनोट); सम्मवतया इसी २१. ग्रन्थ में नगर का नाम पाठ 'मुरगल' मिलता है, कारण उक्त नगर का अपर नाम 'एकशेलगिरि',
जबकि उसका सुप्रसिद्ध नाम वारत है । सम्भव है एक शिलापत्तन या एकशेलपुर प्रसिद्ध रहा ।