Book Title: Anekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 148
________________ वारंगल के काकातीय राज्य संस्थापक जैन गुरु 0 डा. ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ जन साघु प्रायः निवृत्ति मार्गी, निस्पृह, निष्परिग्रह, सल (पोयसल या होयसल) ने द्वारसमुद्र के होयसल राज्य मोर ज्ञान-ध्यान-तपोरत वीतरागी होते रहे हैं । किन्तु की स्थापना स्वगुरु सुदत्त वर्धमान के आशीर्वाद, प्रेरणा कभी-कभी वे सवत्तियों के भी पोषक रहे है और और सहायता से की थी। अन्य भी कई उदाहरण हैं, धर्मसंरक्षणार्थ किन्ही सुराज्यों की स्थापना में भी प्रेरक जिनमे से एक का प्रागे वर्णन किया जायेगा । यों जैन हुए हैं । विशुद्ध इतिहासकाल मे सुप्रसिद्ध मौर्य साम्राज्य धर्म की मल्पाधिक प्रवृत्ति तो पूर्व मध्यकाल के अनेक के संस्थापक वीर चन्द्रगुप्त मौर्य पौर उसके पथप्रदर्शक, छोटे-बड़े राज्य वंशो मे रही। राजनीति गुरु एवं मन्त्रीश्वर मार्य चाणक्य दोनों ही १४वी शताब्दी ई. के पूर्वार्ध में दिल्ली में खिलजी जैन धर्मानुयायी थे। वीर विक्रमादित्य द्वारा उज्जयिनी और तुगलुक सुल्तानों के भीषण एवं विध्वंसक प्रहारों मे शब्दों का उच्छेद करके मालवगण की पुन: स्थापना को दक्षिणापथ की जिन राज्यसत्तानो को झेलना पड़ा में प्रार्य कालक प्रेरक रहे थे। दूसरी शती ई. के अन्त उनमें देवगिरि के यादव, द्वारसमुद्र के होयसल और के लगभग गंगवाडि (मैसूर) के गंग राज्य की स्थापना वारंगल के काकातीय प्रमुख थे। इन तीनों ही राज्यों दड्डिग एव माधव नामक भ्रातृद्वय ने मुनीन्द्र सिंहनन्दि का उदय कल्याणी के उत्तरवर्ती चालुक्य सम्राटो के रूप के आशीर्वाद, प्रेरणा और सहायता से की थी। यह में १०वीं शती के अन्त अथवा ११वी शती ई० के राजवंश हजार-बारह सौ वर्ष पर्यन्त प्रविच्छिन्न रूप से प्रारम्भ के प्रासपास हुप्रा था। १२वी शती के अन्त के चलता रहा । पाठवीं शती में संस्थापित हुमच्च के सान्तर- लगभग उक्त साम्राज्य की समाप्ति के कुछ पूर्व ही ये वंश के प्रथम पुरुष जिनदत्तराय के धर्मगुरु एवं राजगुरु तीनों राज्य स्वतन्त्र हो गए थे। प्रतएव दक्षिणापथ पर जैनाचार्य सिद्धांतकीर्ति थे, और हवी शती में सोन्यत्ति मुसलमानों के प्राक्रमण के समय उस क्षेत्र मे यही तीन के रट्ट राज्य का संस्थापक पृथ्वीराम रट्ट इन्द्रकीति स्वामी राज्य सर्वोपरि, स्वतन्त्र, वैभवसम्पन्न, शक्तिशाली और का विद्या-शिष्य था।' गुजरात-सौराष्ट्र में ७४५ ई. विस्तृत थे । मुसलमानो द्वारा इनमे से सर्वप्रथम देवगिरि चापोत्कट (चावड़ा) राज्यवंश की स्थापना वनराज का यादव राज्य समाप्त किया गया, तदन्तर द्वारसमुद्र चावड़ा ने स्वगुरु शीलगुरुसूरि के प्राशीर्वाद, उपदेश और के होयसलों की बारी आई और अन्त मे वारंगल के सहायता से की थी। ग्यारवीं शती के प्रारम्भ में वीर काकातीय भी समाप्त कर दिए गए। किन्तु अन्तिम दो १. भारतीय इतिहास : एक दृष्टि, (द्वि० सं), पृ. ७६६१, प्रमुख ऐति जैन, पृ० ३४-४४ । २. वही, पृ. ६०.६२ ३. वही, पृ०७१-७२; भा० इ० ए०० पृ० २५६. २५८ ४. प्रमुख ऐति० जैन, पृ० १७१ ५. वही, पृ० १७७ ६. वही, पृ० २२८-२२६ ७. वही, पृ० १३४.१३५ ८. देखिए हमारी उपरोक्त दोनो पुस्तके तथा साल्तोर कृत मेडीवल जैनिज्म, १० कैलाशचन्द्र शास्त्री कृत 'दक्षिण भारत मे जैनधर्म', देसाई कृत 'जैनिज्म इन साउथ इण्डिया', शेषगिरि राव कृत 'पान्ध्र कर्ना टक जैनिज्म', इत्यादि, ६. भारतीय इतिहास : एक दृष्टि, पृ० ३६२, ४१०,

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