Book Title: Anekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 147
________________ प्रोम् महम् কার परमागमस्य बीज निषिद्ध जात्यन्ध मिन्धरविधानम् । सकतनविलसितानां विरोधमथन नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ बी निर्वाण मव। २५०२, वि०म० २०३: वर्ष २६ किरण ४ अक्टूबर-दिसम्बर १६७६ ज्ञान की गरिमा स एव परम ब्रह्म स एव जिनपंगवः । स एव परमं तत्त्वं स एव परमो गुरुः ।। स एव परमं ज्योतिः स एव परमं तपः । स एव परमं ध्यानं स एव परमात्मकः ।। स एव सर्वकल्याणं स एव सुखभाजनं । स एव शुद्ध चिद्रूप स एव परमं शिवः ।। स एव परमानन्दः स एव सुखदायकः । स एव परम ज्ञानं स एव गुणसागरः ।। परमालादसम्पन्नं रागद्वषविजितम् । सोऽहं तं देहमध्येषु यो जानाति स पण्डितः ।। अर्थ-वह स्वात्मा ही गुद्धावस्थापन्न होने पर परम ब्रह्म है, वही जिनश्रेष्ठ है, वही परम तत्त्व है, वही परम गुरुदेव है, वही परम ज्योति, परम तप, परम ध्यान और वही परमात्मा है । वही सर्वकल्याणात्मक है, वही मुग्खों का अमर पात्र है, वहीं विशुद्ध चतन्यस्वरूप है, वही परम शिव है, वही परम आनन्द है, वही मुख प्रदाता है, वहो परमजान है और गुणसमूह भी वही है। उस परम पाह्लाद से सम्पन्न, रागद्वेषजित प्रात्मा का, जिसके लिए 'सोह' का व्यवहार किया जाता है और जो देह में स्थित है, जो जानता है वह पण्डित है ।। आकाररहितं शुद्धं स्वस्वरूपे व्यवस्थितम । सिद्धमष्टगुणोपेतं निविकारं निरंजनम ।। तत्सदृशं निजात्मान यो जानाति स पडितः । सहजानन्दचतन्यप्रकाशाय महीयसे । पाषाणेष यथा हेम दुग्धमध्ये यथा घृतम् । तिलमध्ये यथा तैलं देहमध्ये तथा शिवः ।। काष्ठमध्ये यथा वह्निः शक्तिरूपेण तिष्ठति । अयमात्मा शरीरेषु यो जानाति स पण्डितः ।। अर्थ--यह प्रात्मा निराकार, शुद्ध, स्वस्वरूप में स्थित, सिद्ध, अप्ट गुणयुक्त, विकारनिरस्त और निरजन है। अपने प्रान्मा में विद्यमान महान् सहजानन्द स्वरूप चैतन्य के प्रकाशनार्थ जो सिद्ध प्रात्मा के सदश अपने प्रात्मा को जानता है, वह पण्डित है, जैसे पाषाण में स्वर्ण, दुग्ध में घत तथा तिलों में तेल है वैसे इस देह में शिव है, आत्मा विद्यमान है। और जसे काष्ठ में अग्नि है उसी प्रकार शक्तिरूप में इन शरीरों में प्रात्मा का निवास है इसे जानने वाला ही विद्वान है।

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