________________
कर्णाटक में जैन शिल्पकला का विकास
। श्री शिवकुमार नामदेव
कर्णाटक मे जैन धर्म के अस्तित्व का प्रमाण प्रथम एवं ज्वालिनी की विशेष प्रतिष्ठा की सूचक है।' सदी ई० पू० से ११वी सदी ई० तक ज्ञात होता है। कन्नड क्षेत्र से प्राप्त पार्श्वनाथ-मूर्ति (१०वी-११वीं तत्पश्चात् वहाँ वीरशैव मत का प्रचार हुमा। होयसल सदी) मे एक सपंफण-युक्त पद्मावती की दो भुजानो में मादि वंश के नरेश इस मत के प्रबल समर्थक थे। पूर्व. पद्म एव अभय प्रदर्शित है।' कन्नड शोघ संस्थान सग्रहाकालीन जैन देवालय एवं गुफाएं ऐहोल, बादामी एव लय की पार्श्वनाथ-मूर्ति मे चतुर्भुज पद्मावती पद्म, पाश, पट्टडकल प्रादि स्थलो मे उपलब्ध होती है। उपर्युक्त गदा या अंकुश एव फल धारण किए हुए है। उक्त संग्रहा स्थलों के अतिरिक्त लकुण्डी (लोकिगडी), बंकपुर, बेलगाम, लय मे चतुर्भुजी पद्मावती को ललितमद्रासीन दो स्वतंत्र हल्शी, बल्लिगवे, जलकुण्ड प्रादि मे भी जैन देवालय है। मूर्तियां भी सुरक्षित है । प्रथम प्रतिमा (के० एम०८४) ये देवालय विभिन्न देव-प्रतिमानो से विभूषित है। इन मे सर्पफण से मडित यक्षी का वाहन कुक्कुट-सर्प है । यक्षी देवालयों में श्रवणबेलगोल का शांतिनाथ मदिर, हलेविद का की दोनो दक्षिण भजाए खडित है एवं वाम मे पाश एवं पार्श्वनाथ मंदिर एवं अगदि का मल्लिनाथ मदिर उल्लेख- फल प्रदर्शित है। प्रतिमा के किरीट (मुकुट) मे लघु जिन नीय है । इस काल की बृहदाकार प्रतिमाएं श्रवणबेलगोल, प्राकृति उत्कीर्ण है।' द्वितीय प्रतिमा में पांच सर्पफणों से कार्कल एवं बेनूर मे है।
सुशोभित पद्मावती की भुजाओं मे फल, अंकुश, पाश एवं कर्णाटक के हायलेश्वर देवालय से दो फांग की दूरी पद्म प्रदर्शित है। यक्षी का वाहन हम है। बादामी की पर जैनों के तीन मदिर है जिनमे चौबीस तीर्थ करो की पांचवी गुहा के समक्ष की दीवार पर भी ललित मुद्रा में प्रतिमाएं संरक्षित है।
पासीन च ज यक्षी प्रा मूतित है। प्रासन के नीचे कर्णाटक में पद्मावनी सर्वाधिक लोकप्रिय यक्षी रही उत्कीर्ण वाहन सभवत हस या कोच है। सर्पफण से है।' यद्यपि पद्यावती का सम्प्रदाय काफी प्राचीन रहा है, विहीन यक्षी के करों मे अभय, अंकुश, पाश एवं फल परन्तु दसवीं सदी के पश्चात् के अभिलेखीय साक्ष्यों में प्रदर्शित है। निरंतर पद्मावती का उल्लेख प्राप्त होता है। कर्णाटक के कर्णाटक से उपलब्ध तीन चतुर्भुजी पद्मावती की विभिन्न स्थलों से ग्यारहवीं सदी से तेरहवी सदी के मध्य प्रतिमाएं सम्प्रति प्रिंस ग्राफ वेल्स म्यूजियम, बंबई मे हैं।' की कई प्रतिमाएँ उपलब्ध होती है ।' घारवाड जिले मे तीनों उदाहरणो मे एक सर्पफण से सुशोभित पद्मावती ही मल्लिसेन मूरि ने 'भैरव-पद्मावती कल्प' एवं 'ज्वालिनी- ललितमुद्रा में विराजमान है । पहली मूर्ति में यक्षी की तीन कल्प' जैसे तांत्रिक ग्रन्थों की रचना की थी, जो पद्मावती अवशिष्ट भजायो मे पद्म, पाश व अकुश प्रदर्शित है। १. जैनिज्म इन साउथ इडिया-देसाई, पी० बी०, पृ० घारवाड़, १६५८, १० १६–अन्निगेरी
६. वही, पृ० १६
७. वही २. वही, पृ० १६३।
३. बहो, पृ०१०। ८. जैन यक्षाज एण्ड यक्षिणीज, बुलेटिन डेक्कन कॉलेज४. नोट्स प्रान टू जैन मेटल इमेजेज : हाडवे, डब्ल्यू. रिसर्च इस्टिट्यूट, खंड १, १९४०, पृ० १६१ एच.
एस., रूपम., अक १७, जनवरी १९२४, पृ०४८.४६ डी. सांकलिया। ५. ए गाइड टू द कन्नड रिसर्च इंस्टिट्यूट म्यूजियम, ६. जन यक्षाज एण्ड यक्षिणीज, पृ० १५८-५९