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१२४, बर्ष २६, कि०३
अनेकान्त
की गम्भीरता देखकर माधव को बुलवाया। राजा ने उसने सभा मे हो रहे उस नृत्य तथा संगीत की ध्वनि को उससे कहा कि तुम अपनी कला प्रदर्शित करो। मादेशा- जब सुना तो वह समस्त सभा को मूर्ख बताने लगा। नसार माधव वीणा-वादन करने लगा जिसे सुनकर सारी प्रतिहारी ने जब यह सुना तो वह राजा के पास गया सभा विमोहित हो गई। उस पंचम नाद को सुनकर दुःखी और उससे बोला कि महाराज! एक परदेशी ब्राह्मण सभा अपना दुःख भूल गया, सुखी मोर अधिक सुखी हुमा। को मूर्ख कहता है। राजा को यह सुनकर आश्चर्य हुमा। किन्तु 'प्रति सर्वत्र वर्जयेत्' के अनुसार माधव की सुन्दरता उसने प्रतिहारी से कहा कि माधव से जाकर पूछो कि वह व कला भी उसके लिए अभिशाप सिद्ध हुई। राजा ने सभा को मूर्ख क्यों समझता है। प्रतिहारी के पूछने पर माधव से कहा कि तुम हमारे देश में मत रहो। माधव ने माधव ने कहा-"... · द्वादश तुर जस न वाजंत । मध्य राज-भय से राजा के इस आदेश का पालन किया और तर परख पख जाम । कर पागली नही
तुर पुरव पख जासु । कर प्रागुली नही है तासु ।" यह सारी सभा को प्राशीष देकर विदेश की भोर प्रस्थान कर सुनकर प्रतिहारी राजा के पास गया। समस्त वृत्तान्त गया।
जान लेने के पश्चात् राजा ने माधव को राजसभा में वन उपवन, वन-खण्ड तथा गुफा व पर्वतों को पार बुलवाया और उसे भर्द्धसिंहासन पर बैठाकर उसका भव्य करता हुआ वह कामावती नगरी में पहुंचा जहाँ कामसेन स्वागत किया, साथ ही अपने प्राभूषण भी उसे उपहार मे राजा राज्य करता था। इसी राज्य मे कामकंदला नाम दे दिये। कामकंदला ने भी यह अनुभव किया कि यह की नतंकी भी निवास करती थी। कवि ने यहाँ काम- पुरुष सर्व कलाओं का ज्ञाता है, अत: वह पहले से भी कंदला के सौन्दर्य का सुन्दर वर्णन इस प्रकार किया है- कही अधिक उत्साह मे अपना एक विशेष प्रकार का नत्य
प्रस्तुत करने लगीता पटतरि रंभा उनहारि, रूप प्रछंग लखु गुणीत नारि। सोवा न मंछ कीर ग पीडरी, जहा सथल कदली समसरी। जल भरि कुभ सीस ले धरै, ऐक चरण की भावरि फोर। गुरु व पोत खीण कटि तीरी, मंडल नाभि कमल गंभीर। दुई कर चक्र फिरावं जाणि, कर नीरत राजा प्रागे वाणि। कुच कठोर अम्रत रस भास, मुसि मुह ढलि चानि सो पर्यो। ईही अंतर मधुकर इक दीठ, कुच ऊपर सो पानि बैठ। मुगफली साम सरी प्रागली, कह नुह वणी कणी रह कली। वास लुद्ध परमल के संग, लागे उसन सुकोमल अग। धो दुरम महिर उसण जणु हीर, तीख सुरग नासिका कोर। कला भंग करि छीनी होई, व्याकुल अंग पीडव सोई। कुटिल भौंह पनहर उपमान, चक्रीत कुरग नयण जणु सरवाण पवन खंचि पसु विद्या करी, इणी परि भवर उड़ायो तीरी। बदन सकोमल कापति तोल, काम पासी जाणे सरवण सलोल
माघव उसकी इस कला पर विशेष प्रसन्न हुमा, होया तन चंदन : बर वास, वेणी वीसहर लपो तास ।
लेकिन भ्रमर-रहस्य को उसके सिवाय कोई न जान सका। इस दिन अवसर दोन राई, कामकंवला हरषीत भई।
मूर्ख राजा ने भी यह भेद नही जाना। अत: माधन ने चवन मय कंचुक ना सोयो, सीस तीलकुकीस पुरीव दीयो। मोती माणीक माग भराई, षोडस तन सिंगार कराई।
कामकदला की इस कुशलता पर राजा द्वारा दिये गये
उपहार कामकदला पर न्यौछावर कर दिये । यह देखकर कंडल अवण झलकहि तास, जाणं रवि किरणि विमाकास ।
राजा ने कोधित होकर पूछा कि मेरे द्वारा प्रदत्त उपहारों रहट नासिका तुलई साथोर, जणु रस प्रहि रह के चोर।
को तूने एक वेश्या को क्यो दे डाला? माधव ने हरिण कूच ऊपर मोती के हार, नेवर चलण कर झुणकार। नेत्र मेखला खंधि विहारी, करि सिगार चली सुन्दरी॥
मादि के उदाहरण देते हुए अपनी बात की पुष्टि की।
किन्तु राजा ने क्रोधित होकर उसे निर्वासन का प्रादेश एक दिन राज-दरबार में उसका नृत्य हो रहा था। दे दिया। दुःखी माधव कामावती नगरी छोड़कर जाने उसकी बहुविध कला को देखकर सभी सभासद हर्षित हो लगा, तभी मार्ग में कामकंदला ने उसे रोककर सविनय रहे थे। इतने में माधव राजसभा के सिंहद्वार पर पाया। अपने घर चलने का प्राग्रह किया। माधव ने उसका