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१२२, वर्ष २६, कि०३
अनेकान्त
पश्चात् हुआ। इस युग में तीथंकरों के विभिन्न प्रतीकों ये भी नग्न है, एव ४. सर्वतोभद्रिका प्रतिमा बैठी हुई का परिज्ञान न हो सका था। विभिन्न तीर्थंकरों को पह- मुद्रा मे। चानने के लिए चौकियों पर अंकित लेखों में नाम का
कुषाणकालीन मथुरा-कला में तीर्थंकरों के लांछन उल्लेख ही पर्याप्त था।
नहीं मिलते हैं, जिनसे कालांतर में उनकी पहचान की कंकाली टीले के दूसरे स्तूप से उपलब्ध तीर्थकर- जाती थी। केवल ऋषभनाथ के कंधों पर खुले हुए केशों मूर्तियों की संख्या अधिक है, जिनकी चौकियों पर कुषाण की लटें दिखाई गई है और सुपार्श्वनाथ के मस्तक पर संवत् ५ से ६५ तक के लेख हैं। प्रतिमाए चार प्रकार सर्प-फणों का पाटोप है। तीथंकर-मूर्तियों के वक्ष पर
श्रीवत्स एव मस्तक के पीछे तेजचक्र या प्रभा-मण्डल मिलता १. खड़ी या कायोत्सर्ग मुद्रा मे, जिनमें दिगम्बरस्व है। फणाटोपवाली मूर्तियों में प्रभाचक्र नहीं रहता। के लक्षण स्पष्ट हैं, २. पदमासन में मासीन मूर्तियां, ३. चौकी पर केवल चक्र या चक्रध्वज या जिन-मूर्ति या सिंह सर्वतोभद्रिका प्रतिमा या खड़ी मुद्रा में चौमुखी मूर्तियां; का अंकन पाया गया है।
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(पृष्ठ ११६ का शेषांश) कवि ऐसे राजामों की दूषित वृत्तियों को अध्यात्म और लोकप्रिय भी हो गई। बाद में प्राचार्य सोमदेव ने भी वैराग्य की ओर मोड़ने का प्रयत्न कर रहे थे। प्रारम्भ में तो उसका विरोध करने का प्रयत्न किया
मध्य युग का समाज कठोर वर्ण-व्यवस्था में जकड़ा किन्तु अन्ततः उन्होंने भी प्राचार्य जिनसेन के स्वर में ही हुमा था। इस काल की स्मृतियों में सामाजिक नियमो अपना स्वर मिला दिया। बाद के जैनाचार्यों ने प्राचार्य का विधान किया गया। । विदेशी आक्रमणों के कारण जिनसेन और प्राचार्य सोमदेव से द्वारा मान्य वर्णसामाजिक कट्टरता और अधिक बढ़ती गई। समाज व्यवस्था को सहर्ष स्वीकार कर लिया । भट्टारक सम्प्रदाय में घार्मिक स्वतन्त्रता तो विद्यमान थी किन्तु सती प्रथा, में विशेष प्रगति हुई। प्राचार के स्थान पर बाह्य क्रियाबहुपत्नीत्व प्रादि कुरीतियां प्रचलित थीं। तथापि काण्ड बढ़ने लगा। ११वीं और १२वीं शताब्दी से वैदिक संस्कृति के विपरीत श्रमण संस्कृति मे वर्ण. वैदिक समाज व्यवस्था और जैन समाज व्यवस्था व्यवस्था 'जन्मना' न मानकर 'कर्मणा' मानी जाती थी। में बहुत अन्तर नहीं रहा । जैन समाज मे अनेक नौवीं शताब्दी में प्राचार्य जिनसेन ने वैदिक व्यवस्था में सुधारक आन्दोलन भी हुए। समाज में प्रचलित अन्ध अन्य सामाजिक और धार्मिक संकल्पों का जैनीकरण करके विश्वासों और रूढ़ियों का व्यापक विरोध हुआ। इस जैन धर्म और सस्कृति को वैदिक धर्म और संस्कृति के काल में जो जैन साहित्य रचा गया उसमें ये सब विविध साथ लाकर खड़ा कर दिया, जो व्यवस्था कालान्तर में प्रवृत्तियां दृष्टिगोचर होती है।
३, रामनगर, नई दिल्ली-५५
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५. भारतीय कला-डा. वासुदेव शरण अग्रवाल, पृ० २८३ ।