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शुंग-कुषाणकालीन जैन शिल्पकला
श्री शिवकुमार नामदेव
प्राचीन भारत के शुंग एवं कुषाण दो राजवंशों का हुमा है तथा दक्षिण हस्त भी नृत्य की भगिमा को प्रस्तुत करूा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है। शुंगों का काल कर रहा है । संगत करनेवाले निकट बैठे है। वैदिक धर्म के पुनरुत्थान एव कुषाणों का काल बौद्धधर्म के प्रिंस प्राफ वेल्म म्यूजियम, बम्बई में जैनधर्म के लिए स्वर्णकाल था। फिर भी दोनों वशों के नरेशों का तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ की एक प्राचीन कांस्य प्रतिमा दृष्टिकोण संकुचित नही था। वे अन्य धर्मों के प्रति भी है। प्रतिमा खड्गासन में है। उसके सर्पफणों का वितान काफी उदार और सहिष्ण थे। इसी का यह परिणाम था एवं दक्षिण कर खंडित है। प्रोष्ठ मोटे है एव हृदय पर कि उनके काल मे अन्य मतो के साथ जैन धर्म भी उन्नति
श्रीवत्स का चिह्न अंकित नही है। श्री यू० पी० शाह ने के शिखर पर था।
इस प्रतिमा का काल १०० ई० पूर्व के लगभग माना है । शुंगकाल (१८५ ई०पू० से ७२ ई० पू०) यद्यपि
शुंगकालीन ककाली टोला (मथुरा) से जैन स्तूप के बाह्मणधर्म के उत्कर्ष का काल था, तथापि इस युग की
अवशेष मिले है तथा उसी समय के प्रस्तर के पूजापट्ट भी कलाकृतियों में जैन-प्रवशेष भी कम संख्या में उपलब्ध
उपलब्ध हुए है, जिन्हे पायागपट्ट कहा जाता था। यह नहीं हुए है। शुगकाल मे जैनधर्म के अस्तित्व की द्योतक
प्रस्तर अलंकृत है तथा पाठ मागलिक चिह्नो से युक्त है । कतिपय प्रतिमाएं उपलब्ध हुई है। लखनऊ-संग्रहालय में
पूजा-निमित्त अमोहिनी ने इसे प्रदत्त किया था। संरक्षित मथुरा से प्राप्त एक फलक पर ऋषभदेव के शंगकालीन कला का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र उड़ीसा सम्मुख अप्सरा नीलांजना का नत्य चित्रित है। इसका प्रदेश में था। जिम समय पश्चिमी भारत में बौद्ध शिल्पी दृष्टांत इस प्रकार है--एक दिन, चैत्र कृष्ण नवमी को लेणों (गुफाओं) का निर्माण कर रहे थे, लगभग उसी राजा ऋषभदेव सहस्त्रों नरेशों से घिरे राजसिंहासन पर समय कलिंग मे जैन शिल्पी कुछ गुफाओं का उत्खनन कर मारूद थे। सर्वसुन्दरी अप्सरा नीलांजना का नत्य चल रहे थे। ये गुफाएं भुवनेश्वर से ५ मील उत्तर-पश्चिम में
न उदयगिरि और खण्डगिरि नामक पहाड़ियों में बनाई गई समस्त सभासद विमग्ध थे। तभी अचानक नीलांजना की हैं। ये गुफाएँ जैनधर्म से सम्बधित हैं । गुफानों के संरक्षक मायु समाप्त हो गई। उसके दिवंगत होते ही इन्द्र ने कलिंग-नरेश खारवेल (ई०पू०२री सदी) थे। यद्यपि तत्काल उसके जैसी ही अन्य देवांगना का नत्य प्रारम्भ इस काल के शिल्प-विषयक अवशेष उपलब्ध नहीं होते करा दिया। यद्यपि यह सब इन्द्र ने इतनी चतुराई एव किन्तु खारवेल के लेख से ज्ञात होता है कि वह मगध के शीघ्रता से किया कि किसी को पता भी न चल सका,
नन्द राजा द्वारा कलिंग से ले जाई गई एक जैन मूर्ति को किन्तु यह सब सूक्ष्मदर्शी ऋषभदेव की दृष्टि से प्रोझल
अपनी राजधानी वापस ले पाया था। यह उल्लेख महत्त्वन रह सका । संसार की नश्वरता का विचार प्राते ही रस पूर्ण है क्योंकि इससे द्वितीय सदी ई० पू० में जैन तीर्थंकरों फोका पड़ गया और वे वैराग्य के रंग में सराबोर हो की मूर्तियों का अस्तित्व सिद्ध होता है। गए। उन्होंने दिगम्बरी दीक्षा लेने का संकल्प किया। शुग एव कुषाण काल मे मथुरा जैनधर्म का प्राचीन चित्रित फलक में अनेक नरेशों सहित ऋषभदेव को बैठे केन्द्र था। ब्राह्मणो एब बौद्धों के समान जैन धर्मानुयायियों दिखाया गया है । नर्तकी का दक्षिण पैर नृत्य-मुद्रा में उठा ने भी अपने धर्म और कला के केन्द्र स्थापित किए। १. स्टडीज इन जैन पार्ट-~-यू०पी० शाह, चित्रफलक २, प्राकृति ५. २. जर्नल माफ बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी, भाग २, पृ० १३.