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मध्य युग में जैन धर्म और संस्कृति
कुमारी रश्मिबाला जैन, एम० ए०, नई दिल्ली
मध्य युग में भक्ति का प्राधान्य रहा। सभी धर्मों में किया। कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी इस काल में भक्ति के कारण अनेक विकासपथ निर्मित हुए । मध्य काल उल्लेखनीय प्रगति हुई। दोनो परम्परामों और उनके के साहित्य का स्वर धर्म और भक्ति ही था। उस काल प्राचार्यों को परमार वशी राजानों ने विशेष राज्याश्रय के साहित्य में हमें वैदिक, जैन और बौद्ध धर्मों के विकास दिया। अनेक राजा जैन धर्मावलम्बी भी रहे, जिनमें मौर परिवर्तन के विविध रूप दृष्टिगोचर होते है। मध्य प्रमुख है राजा मुज, राजा भोज तथा राजा नवसाहसांक यग में वैदिक धर्म ने विशेषतया से दार्शनिक क्षेत्र में प्रवेश प्रादि । इन्होंने ही अनेकानेक जै। कवियों तथा विद्वानों किया। प्रभाकर और कुमारिल ने मीमासा के माध्यम को समुचित प्राश्रय दिया। उनमे से कवि धनपाल, से और शंकराचार्य ने वेदान्त के माध्यम से वैदिक दर्शन अमितगति, प्रभाचन्द्र, नयनन्दी, धनञ्जय, माशाघर, का पुनरुत्थान किया। पौराणिक और स्मार्त धर्मों का माणिकनन्दी तथा महासेन आदि के नाम विशेष उल्लेखसमन्वयात्मक रूप सामने प्राया । वैष्णव धर्म विविध नीय है। हथूडी का राठोर वश जैन धर्म का परम भक्त शाखामों और उपसम्प्रदायों में विभक्त हमा जिसके अनेक था तथा इसी वश के प्राश्रय में वासुदेव सूरि, शातिभद्र भेद और प्रभेद परिलक्षित होते है जिसका विविध रूपों सूरि प्रादि विद्वान रहे। मेवाड की राजधानी चित्तौड मे देश के विभिन्न क्षेत्रो मे प्राबल्य रहा ।
जैन धर्म का विशिष्ट केन्द्र थी। ऐलाचार्य, हरिभद्र सरि,
वीरसेन प्रादि विद्वानों ने यही पर अपने साहित्य का मध्य काल तक बौद्ध धर्म देश विदेशों मे हीनयान और
सृजन किया। चित्तौड़ के राजा-महाराजामो ने अपने महायान के रूप मे बट गया था। साधारणतया उत्तर मे
महलों के निकट सुविशाल जैन मन्दिरी का निम ण महायान और दक्षिण मे हीनयान का जोर था। भारत
करवाया। में इस काल में महायानी परम्परा अधिक फली-फूली।
चन्देल वंश के राजा भी जैन धर्म के परम अनुयायी हेनसांग ने इसी काल में बौद्ध धर्मानुयायी महाराजा
थे । इसी शासनकाल मे खजुराहो के शांतिनाथ दि० जैन हर्षवर्धन के राज्यकाल मे भारत यात्रा की। शाक्त सम्प्रदाय
मन्दिर मे आदिनाथ की विशाल प्रतिमा की प्रतिष्ठा विद्या. के प्रभाववश उसमे तान्त्रिक साधना के प्रवेश के कारण
घर देव ने की। महोबा, देवगढ़, अजयगढ़, महार, पपोरा, बौद्ध धर्म उत्तरोत्तर अप्रिय होता गया।
मदनपुरा आदि जैन धर्म के केन्द्र-स्थल थे। ग्वालियर के ___ मध्य युग तक जैन धर्म दो शाखाओं में विभक्त हो
कच्छपघट राजामों ने भी जैन धर्म को पूर्ण प्रश्रय दिया। चुका था-दिगम्बर तथा श्वेताम्बर । इन दोनो परम्परामों को विकसित होने का पर्याप्त अवसर भी
जैन धर्म के केन्द्र के रूप मे कलिंग राज्य की महत्ता मिला जिससे जैन साहित्य, कला और संस्कृति का पूर्ण प्रारभ से ही रही है। यद्यपि कलचुरी वश शैव धर्मावरूप से विकास हुग्रा। उत्तरकालीन प्राचार्य सोमदेव के
कालीन प्राचार्य सोमदेव के लम्बी था तथापि उसने जैन धर्म और कला की पर्याप्त यशस्तिलकचम्पू (६५६ ई०), नीतिवाक्यामृत प्रादि ग्रन्थ प्रतिष्ठा की। जैन धर्म के और भी कई केन्द्र थे। उनमें इसी समय के है तथा इसी काल में गुर्जर-प्रतिहार राजा से रामगिरि, जोगीमारा, एलोरा, कारजा, धाराशिव, बत्सराज के राज्य में उद्योतन सूरि ने ७७८ ई० मे कुव. अचलपुर, कुल्पाद, खनुपपदेव प्रादि प्रमुख है। लयमाला, जिनसेन ने स. ७८३ मे हरिवंश पुराण और जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करने में गुजरात का हरिभद्र सूरि ने समराहच्चकहा मादि ग्रन्थो का निर्माण प्रमुख हाथ रहा है। मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजा जैन