Book Title: Anekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 128
________________ कालिदास के काव्यों में अहिंसा और जैनत्व श्री प्रेमचन्द रांवका संस्कृत वाङ्मय में महाकवि कालिदास का महत्त्व- उत्पन्न व्यक्ति राघव कहलाये । दिलीप तथा उसकी रानी पूर्ण स्थान है । अपनी काव्य-प्रतिभा द्वारा इस महाकवि सुदक्षिणा ने बड़ी साधना तथा व्रत करके रघु-सा पुत्र ने संस्कृत-साहित्य का भण्डार भरकर संस्कृत-जगत् को प्राप्त किया था। दिलीप ने जब अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा उपकृत किया और स्वयं भी अमर हो गया। इस अमर छोड़ा तो उसका रक्षक इस रघु को ही नियुक्त किया। कवि के काव्य के माधुर्य-प्रवाह से भारतीयों के सरस घोड़े को इन्द्र ने हर लिया तो रघु ने उससे भी लोहा हृदय ही परिप्लावित नहीं हुए हैं, अपितु पाश्चात्य पण्डितों लिया और उसके दात खट्टे कर दिए। इन्द्र गुणज्ञ था। के चित्त भी पूर्णरूप से सरसीकृत है। वह रघु के पराक्रम से प्रसन्न हुमा और उसने घोड़े के अतिरिक्त कुछ भी मांगने के लिए रघु से कहा। इस पर विद्वान् इतिहासकारों ने कविवर कालिदास का समय रघु ने प्रार्थना की कि यदि आप घोड़ा नहीं देना चाहते विक्रम की प्रथम शताब्दी-ईसा से लगभग ५०-६० वर्ष है तो मेरे पिता को उसके बिना ही अश्वमेध यज्ञ का पूर्व का माना है। वह सम्राट् चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का ___ समग्र फल प्राप्त हो जाए, यह वर दीजिए। समकालीन था। कवि के मालविकाग्निमित्र पौर विक्रमोवंशीय नाटक इस तथ्य के साक्षी हैं। कालिदास के समय यद्यपि इससे रघु के असाधारण बल-पराक्रम का पता में जैनधर्म एवं बौद्धधर्म का पर्याप्त प्रभाव था। इस चलता है, किन्तु क्या यह सम्भव नही कि शैव होते हए विषय में बागीश्वर विद्यालंकार ने अपनी पुस्तक 'कालि भी कवि यज्ञों में होने वाली निरीह पशूमों की निर्मम दास और उसकी काव्यकला' में लिखा है कि उस समय हत्या को पसन्द नही करता? इसीलिए नायक की मार्य लोग प्रकृति की शक्तिरूप अदृश्य परमात्मा, प्रात्मा, प्रतिष्ठा के साथ उसने अपनी अहिंसात्मक भावना को भी पुनर्जन्म तथा कर्मफल में विश्वास रखते थे। कालान्तर प्रकाशित करना अभीष्ट समझा। में यज्ञों में धीरे-धीरे पशुहिंसा का समावेश हुआ और जब वह बहुत बढ़ गई तो समाज में उसके विरुद्ध एक प्रति कवि ने रघुवश के दूसरे सर्ग मे भी सिंह वाले प्रसग क्रिया उठ खड़ी हुई। उस प्रतिक्रया का एक रूप वह की रचना कर एक गाय (कामधेनु) की रक्षा के लिए ज्ञान-मार्ग था, जिसकी झांकी उपनिषदों तथा प्रास्तिक दिलीप को अपनी देह प्रस्तुत करने के लिए उद्यत दिखदर्शनों के चिन्तन में मिलती है। दूसरा रूप अहिंसावादी लाया है। रघुवश के ही पांचवे सर्ग में हम पढते है कि जैन और बौद्ध धमों का प्रभाव था। इन धर्मों के प्राचार्य स्वयंवर मे भाग लेने के लिए रघ का पुत्र मज विदर्भ जा बड़े प्रतिष्ठित कुलों के क्षत्रिय राजकुमार थे। उनका रहा था। रास्ते में उसके पड़ाव पर एक जगली हाथी व्यक्तित्व पाकर्षक एवं प्रभावशाली था और उन्होंने अपने टूट पड़ा। 'हाथी मर न जाए' इस बात का विचार कर, प्रचार का माध्यम भी लोक-भाषा को बनाया, अतः उनकी केवल उसे डराने के उद्देश्य से मज ने एक साधारण-सा शिक्षायें शीघ्र ही सारे देश में फैल गई। तीर उस पर छोड़ा। तीर के लगने मात्र से हाथी महाकवि कालिदास शैव होते हए भी जनधर्म की गन्धर्व का रूप धारण कर प्रज के सम्मुख उपस्थित हो शिक्षामो से बहुत प्रभावित थे। रघुवंश, अभिज्ञानशाकुन्तल गया और बोला कि मैं प्रियवद नामक गन्धर्व हूं, जो पौर कुमारसम्भव प्रादि कृतियां इस तथ्य को प्रमाण हैं। मातङ्ग नामक ऋषि के शाप से हाथी बन गया था। रघुवंश इस कवि का प्रमुख महाकाव्य है। इस काव्य में तुमने क्षत्रिय के कर्तव्य का पालन करते हुए भी दया नहीं राजा रघु का विशेष महत्त्व है। उसी के नाम से प्रागे छोड़ी और मेरे प्राण नही लिए । अत: मैं माज से तुम्हारा चलने वाले वश का नाम रघुवंश पड़ा। उस वंश में मित्र हं मोर इस मित्रता को स्मरणीय बनाने के लिए

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