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कारीतलाई को विमतिका जैन प्रतिमाएं
गया है। इस प्रकार, हम देखते है कि रूपमडन एव को तीर्थकर प्रतिमानों में । तीर्थकरों के हृदय पर श्रीवत्स नेमिनाथचरित में बालक का होना बताया है जो कारी- अर्थात् चक्रचिह्न रहता है। यह धर्मचक्र है । इनके तलाई से प्राप्त प्रतिमा मे है।
प्रासन के नीचे प्रकित प्रतीक धारणधर्मा धर्म के प्रतीक पार्श्वनाथ की यक्षी पद्मावती का वाहन अपराजित- है। प्रत्येक जिन की माता ने इनके जन्म के पूर्व स्वप्न मे पृच्छा के अनुसार कुक्कुट, वास्तुसार के अनुसार सर्प एवं कुछ-न-कुछ देखा था। यही देखी हुई वस्तु उस जिन का प्रतिष्ठासारोद्धार, अभिधान चिंतामणि, अमरकोश, प्रतीक है। प्रत्येक जिन ने किसी-न-किसी वृक्ष के नीचे दिगंबर जैन माइकोनोग्राफी एवं हरिवंशपुराण के अनुसार केवल-ज्ञान प्राप्त किया था। वह ज्ञानवृक्ष कहलाता है। मैसा बताया गया है। परन्तु कारीतलाई से प्राप्त पद्मा
उपरिवणित ऋषभनाथ एव अजितनाथ की द्विवती के मस्तक पर वास्तुसार के ही अनुरूप सर्पफण है।
मूर्तिका प्रतिमा में से ऋषभनाथ की चौकी पर उनका प्रतीकशास्त्रीय अध्ययन
लाछन वृषभ ग्रंक्ति है। वषभ धर्म का प्रतीक माना भारतीय मूर्तिकला में प्रतीक के रूप मे पशु-पक्षी,
जाता है। उनके हृदय पर धर्म का प्रतीक श्रीवत्स अंकित मानव, अर्धदेव, लता, वनस्पति, अचेतन पदार्थ, शस्त्रास्त्र
है। दोनों के मस्तक के पीछे लगा हुमा प्रभामण्डल धर्मप्रादि को स्थान दिया गया है। इन प्रतीकों के अध्ययन
चक्र का प्रतीक है। यह वेद का कालचक्र है जो काल से भारतीय कला के अनेक रूपों को समझा जा सकता
एवं धर्मचक्र के रूप मे हिन्दू, जैन एव बौद्धधर्म से सम्बद्ध है। प्रत्येक प्रतीक के पूर्व और अग्रिम इतिहास को जाने
है। दोनों के मस्तक पर तीन छत्रोवाला छत्र है जो बिना भारतीय कला का मर्म एवं अर्थ समझना कठिन है। त्रिशक्ति या तीन लोक के चक्रवतित्व का प्रतीक है।
देवी और देवतामो की प्रतिमानो का लक्षण निश्चित तीर्थकर अजितनाथ की चौकी पर उत्कीर्ण उनका लाछन करते समय धार्मिक प्रतीकों की अावश्यकता हुई। इसके हस्ति प्राध्यात्मिक गौरव और वैभव का प्रतीक है। इसी लिए धार्मिक प्राचार्यो और शिल्पियों ने प्राचीन मांगलिक प्रकार प्रत्येक जिन का नाछन प्रकित है। प्रतिमा-शास्त्र चिह्नों पर ध्यान दिया और उन्हे विमिन्न देवमूर्तियों के की दृष्टि से इन लाछनो का विशेष महत्त्व है। लिए स्वीकार किया, जैसे चक्र, सिंह और श्रीवत्स प्रादि
D (पृष्ठ २१२ का शेषाश) सूक्ष्म निरीक्षण की पद्धति को विकसित करने के जीवन जीते है। जो सत्य की खोज में निरत होते है, लिए कर्मशास्त्रीय अध्ययन भी बहुत मूल्यबान है। हमारे उनके मन मे कलुषतायें नही रहती, और यदि वे रहती पोद्गलिक शरीर के भीतर एक कर्म शरीर है। वह सूक्ष्म है तो पग पग पर बाघायें उपस्थित करती है। सत्य को है। उसकी क्रियायें स्थूल शरीर के प्रतिबिम्बो की सूक्ष्म, खोज के लिए निरीक्षण पद्धति का विकास प्रावश्यक है तस व्याख्या कर सकते है और उनके कार्य-कारण भाव और उसके विकास के लिए चित्त की निर्मलता भोर का निर्धारण भी कर सकते है।
एकाग्रता प्रावश्यक है। आज के वैज्ञानिक वातावरण मे मन की विभिन्न प्रवृत्तियों, उसको पृष्ठभूमि में रही निरीक्षण के द्वारा उपलब्ध प्रमयो का परीक्षण भी होना हई चेतना के विभिन्न परिवर्तनों और चेतना को प्रभावित चाहिए। विज्ञान को दर्शन का उत्तराधिकार मिला है, करने वाले बाहरी तत्त्वों का अध्ययन कर हम निरीक्षण प्रत. दर्शन और विज्ञान में दूरी का अनुभव क्यों होना की क्षमता को नया आयाम दे सकते है।
चाहिए। निरीक्षण के पश्चात् परीक्षण और फिर तर्क इस समन्वित अध्ययन की परम्परा को गतिशील का उपयोग इस प्रकार तीनों पद्धतियो का समन्वित प्रयोग बनाने के लिए दार्शनिक को केवल तर्कशास्त्री होना हो तो दर्शन पुनः प्राणवान हो अपने पितृस्थान को प्रतिपर्याप्त नहीं है। उसे साधक भी होना होगा। उसे चित्त ठापित कर सकता है। इस भूमिका में वायशास्त्र या की निर्मलता भी अजित करनी होगी। बहुत सारे वैज्ञा- प्रमाणशास्त्र का भी उचित मूल्याकन हो सकेगा। निक भी माधक होते है और वे तपस्वी जमा निर्मल