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शंग-कुषाणकालीन
शिल्पकला
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कंकाली टोले के उत्खनन से बहुसंख्या में मूर्तियां उपलब्ध स्थापना सिंहवादिक ने प्रत्-पूजा के लिए की थी। तीर्थहुई हैं। ये मूर्तियां किसी काल में मथुरा के दो स्तूपों में दूर-प्रतिमा से युक्त होने के कारण इसकी संज्ञा 'तीर्थकर. लगी हुई थीं। महत् नंद्यावर्त की एक प्रतिमा जिसका काल पट्ट' हुई। उसके मध्य में पद्मासनस्थ तीर्थङ्कर-मूर्ति है। ८६ ई० है: इस स्तूप के उत्खनन से प्राप्त हुई है। उसके चारों ओर चार त्रिरत्न है । इस पट्ट के वाह्य चौखट
यहां से प्राप्त जैन मूर्तियाँ बौर मूर्तियों के इतनी पर अष्ट-मांगलिक चिह्न-मीन-मिथुन, देवग्रह-विमान, सदृश हैं कि दोनों में प्रस्तर करना कठिन हो जाता है। श्रीवत्स, रत्नपात्र ऊर्ध्व पंक्ति में एवं अघोपंक्ति में त्रिरत्न यदि श्रीवत्स पर ध्यान न दिया जाए तो ऊपरी अंगों को पुष्पस्त्रक, वैजयंती तथा पूर्णधट है। समानता के कारण जैन मूर्ति को बौद्ध एवं बौद्ध मूर्ति को कषाण संवत ५४ में स्थापित देवी सरस्वती की जैन मूर्ति प्रासानी से कहा जा सकता है। कारण यह था प्रतिमा भी प्रतिमा-शास्त्रीय दृष्टि से जैन कला की मौलिक कि कुषाणयुग के प्राम्भ में कला के क्षेत्र में धामिक देन है। इसका दक्षिण कर प्रभय-मुद्रा में है एवं वाम कर कट्टरता नहीं थी।
में पुस्तक है। मथुरा से प्राप्त पायागपट्र कला की दृष्टि से प्रतीव
पायागपट्ट पर अंकित मांगलिक चिह्नों की स्थिति से सुन्दर हैं । जैनधर्म में प्रतीक-पूजा की सतत प्रवाही धारा
मूर्ति को जैन प्रतिमा मानने में संदेह नहीं रह जाता। इनसे सिद्ध होती है और किस प्रकार मूर्ति-पूजा का
चिह्न ये हैं-१. स्वस्तिक, २. दर्पण, ३. भस्मपात्र, ४. बेत समन्वय उस धारा के साथ हुआ, यह ज्ञात होता है ।
की तिपाई (भद्रासन), ५.६. दो मछलियां, ७. पुष्पमाला, पायागपट्ट पूजा-शिलाएं थे। ये जैन-कला की प्राचीनतम
८. पुस्तक । पोपपातिकसूत्र में प्रष्ट मांगलिक चिह्नों के कृतियां है।
नाम इस प्रकार हैं-स्वस्तिक, श्रीवत्स, नंद्यावर्त,वर्तमानक, कुषाण-युग के अनेक कलात्मक उदाहरण मथुरा के
भद्रासन, कलश, दर्पण तथा मत्स्ययुग्म । कंकाली टोले की खुदाई से प्राप्त हुए हैं। यहां से प्राप्त
इस युग के अन्य प्रायागपट्ट पर जो मांगलिक उत्कीर्ण एक पायागपट्ट' पर महास्वस्तिक का चिह्न बना है जिसके
हैं उनमें दर्पण तथा नंद्यावर्त का अभाव है। संभवतः मध्य में छत्र, नीचे पद्मासन में तीर्थङ्कर मूर्ति है, उनके
कनिष्क के काल तक (ई० प्रथम शती) प्रष्टमांगलिक चारों भोर स्वस्तिक की चार भुजाएं हैं। तीर्थङ्कर के
की अंतिम सूची निश्चित न हो सकी थी। दिगम्बर शाखा मण्डल की चारों दिशामों में चार विरल दिखाए गए हैं।
में निम्नलिखित मष्टमांगलिक चिह्न वणित है-भृङ्गार, महास्वस्तिक की लहराती चार भुजानों के मोड़ों में भी
कलश, दर्पण, चामर, ध्वज, व्यजन, छत्र, सुप्रतिष्ठ । चार धार्मिक चिह्न मीन-मिथन, वैजयंती, स्वस्तिक एवं श्रीवत्स हैं। स्वस्तिक के बाहर मण्डल में वेदिकान्तर्गत कुषाण-काल में प्रधानतः तीर्थङ्कर की प्रतिमाएं तैयार बोधिवृक्ष, स्तूप, एक प्रस्पष्ट वस्तु मौर सोलह विद्याधर
की गई जो कि कायोत्सर्ग एवं पद्मासन-अवस्था में है। मथुरा युगलों से पूजित तीर्थङ्कर मूर्ति ये चार धार्मिक चिन । के शिल्पियों के सम्मुख यक्ष की प्रतिमाएं हो पादर्श थीं।
रक चार कोनों में गुह्यक मुद्रा में चार महोरग हैं। प्रत : कायोत्सर्ग स्थिति में तीर्थकर की विशालकाय नग्न चौकोर चौखटे को एक मोर बढ़ाकर प्रष्ट मांगलिक चिह्नों मतियां बनने लगीं । कंकाली टीले के उत्खनन से उपलब्ध का पक्ति का मंकन है जिनमें स्वस्तिक, मीन-मिथन और बहसंख्यक नग्न प्रतिमाएं लखनऊ के संग्रहालय में संरक्षित श्रीवस्स सुरक्षित हैं।
हैं। नग्न प्रतिमानों की स्थिति से यह निष्कर्ष निकलत, कला की दृष्टि से लखनऊ संग्रहालय में संरक्षित है कि इस काल में दिगम्बर जैनों की प्रधानता थी ती पायागपट्ट क्राक जे २४६ विशेष उल्लेखनीय है। इसकी कर-प्रतिमानों में अधोवस्त्र का समावेश कुषाण-युग के ३. भारतीय कला-डा. वासुदेव शरण अग्रवाल, पृ. २७१-८२, चित्रफलक ३१६. ४. वही, पृ० २८२-८३, चित्रफलक ३१८.