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' ले प्राया। माधव और कामकंदला के मुख में अमृत अमृत की बूंदे डाली गईं और वे दोनों जीवित हो गये ।
राजा यह देखकर हर्षित हो गया। अब उसने ससंन्य कामावती नगरी पर पढ़ाई कर दी। कामावती नगरी के समीप पहुंचकर राजा ने कामसेन के पास संदेश भिजवाया कि वह कामकन्दला को सौंप दे, किन्तु कामसेन ने इसे अपमान समझा भौर युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हो गया । घमासान युद्ध हुआ । इसमे कामसेन की पराजय हुई | विक्रम ने कामंकन्दला को प्राप्त कर लिया। कामसेन की याचना पर राजा विक्रम ने उसे भी क्षमा कर दिया। इसके बाद कामक दला सहित राजा उज्जैन श्राया भौर फिर वहाँ माघव तथा कामकन्दला का पाणिग्रहण करवा दिया। सारी नगरी मे हर्षोत्सव मनाया गया। माधव तथा कामकन्दला भौतिक ऐश्वयं भोगते हुए सानन्द जीवन यापन करने लगे ।
स्रोत एवं प्राधार- - इस कथा पर प्राधारित अन्य रचनायें भी लिखी गई । छोहल के पूर्व भी अन्य दो कवि मानन्धर तथा नारायनदास ने यह कथा लिखी। इस कथा का मूल स्रोत क्या रहा होगा इस पर विभिन्न मत प्रस्तुत किये गये। प्राचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार इसका मूल स्रोत विक्रम की पहली शती ही सकता है। उनका कथन है कि माघव और कामकन्दला की कहानी सम्भवतः प्राकृत और अपभ्रंश के संधिकाल मे रची गई थी। पं० उदयशंकर शास्त्री से भी इस कथानक के स्रोत पर लेखक ने विचार विनिमय किया था, जिसके अनुसार इस कथा के मूल मे अपभ्रंश की कोई लोक प्रचलित कथा रही होगी। श्री कृष्ण सेवक ने माधव
अनेकान्त
श्रौर कामकन्दला को ऐतिहासिक पात्र बताया है।' श्रीकृष्ण सेवक के कथन को ही उद्धृत करते हुए डा० हरिकांत श्रीवास्तव ने इसे ऐतिहासिक घटना माना है। किन्तु इस तथ्य को मानने में दो पतियां है
(१) श्रीकृष्ण सेवक ने जिस खण्डहर को कामकन्दला का महल बताया है उसे 'मार्केलॉजिकल सर्वे आफ इण्डिया' ने सिद्ध कर दिया है कि वह महल न होकर शिव मन्दिर
था ।
(२) कामावती और पुष्पावती के राज्यों के विवरण विक्रमकालीन होने का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता ।
प्रतः इस कथा का मूल स्रोत ऐतिहासिक नहीं माना जा सकता। इस परम्परा के प्रथम हिन्दी कवि नारायनदास ने अपने प्राश्रयदाता का निर्देश करते हुए लिखा
मनि परि वोरा दोनो राउ, मोहि भेद मावा सुमार ताहि वियोग कौन विधि भयो कैसे निकर वितरि गयो। क्यों सुन्दरी सो भयो मिलाउ, क्यों धाराष्यो विक्रम राज क्योंषु सहि बहुरं सुख लहयो सब समुभाइ बेद यों कहो |
इन पंक्तियों से यह तो स्पष्ट है कि यह लोक प्रचलित सरस कथा रही होगी, तभी प्राश्रयदाता ने कवि से इस कथा को लिखने की इच्छा व्यक्त की। इसके पूर्व श्रानन्दघर भी इस काव्य की संस्कृत में रचना कर चुके ये धतः कवि छोहल ने संभवतः इन्हीं दो कवियों की रचनाओं को अपने इस प्रबन्ध का मूल श्राधार बनाया होगा ।
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१. भारतीय प्रेमाख्यान काव्य (डा० श्रीवास्तव, हरिकांत), पृ० २२०. २. Seventh Oriental Conference, Baroda, 1933 pp. 995-999.