________________
जैन वाङ्मय में आयुर्वेद
0 प्राचार्य श्री राजकुमार जैन
भारत में प्रत्यन्त प्राचीन काल से प्रायुर्वेद की उल्लेख मिलता है। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण एक तथ्य परम्परा चली पा रही है। प्रायुर्वेद के उपलब्ध ग्रन्थों का यह है कि जैन धर्म के विशाल वाङ्मय के अन्तर्गत स्वतन्त्र अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि वैद्यक शास्त्र या रूप से प्रायुर्वेद का विकास हुप्रा है। बहुत ही कम लोग मायुर्वेद का मूल स्रोत वैदिक वाङ्मय है। वेदों में प्रायुर्वेद इस तथ्य से अवगत है कि वैदिक साहित्य और हिन्दू धर्म सम्बन्धी पर्याप्त उद्धरण मिलते है। सर्वाधिक उद्धरण की भांति जैन साहित्य और जैन धर्म से भी मायुर्वेद का मपर्ववेद में मिलते है। इसीलिए मायूर्वेद को उपवेद निकटतम सम्बन्ध है। जैन धर्म में प्रायुर्वेद का क्या माना गया है। आयुर्वेद के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ चरकसहिता महत्व है और उसकी कितनी उपयोगिता है, इसका एवं सुश्रुतसंहिता में प्राप्त वर्णन के आधार पर प्रायुर्वेद अनुमान इस तथ्य से सहज ही लगाया जा सकता है कि की उत्पत्ति (पभिव्यक्ति) सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मा जी जैन वाङमय में प्रायुर्वेद का समावेश द्वादशांग वाङ्मय में द्वारा हुई । ब्रह्मा ने प्रायुर्वेद का ज्ञान दक्ष प्रजापति को किया गया है। यही कारण है कि जैन वाङ्मय में अन्य दिया, दक्ष प्रजापति ने अश्विनीकुमारों को उपदेश दिया शास्त्रों या विषयों की भांति प्रायुर्वेद-शास्त्र या बंधक पौर अश्विनीकुमारों से देवराज इन्द्र ने प्रायुर्वेद का ज्ञान विषय की प्रामाणिकता भी प्रतिपादित है। जैनागम में ग्रहण किया। इस प्रकार सुदीर्घ काल तक देव लोक में वैद्यक (पायर्वेद) विषय को भी पागम के अंग के रूप में मायुर्वेद का प्रसार रहा । ताश्चात् भूलोक मे व्याधियो स्वीकार किया गया है। से पीड़ित मार्त प्राणियों की रोग मुक्ति करने की दृष्टि प्राचीन भारतीय वाङमय का अनुशीलन करने से से मुनिश्रेष्ठ भारद्वाज देवलोक में गये और वहां इन्द्र जात होता है कि भारत में प्रायुर्वेद की परम्परा अत्यन्त से अष्टांग प्रायुर्वेद का उपदेश ग्रहण कर पृथ्वी पर उसका गीत। समय-समय पर विभिन्न जनेतर विद्वानों द्वारा प्रसार किया। उन्होंने कायचिकित्सा-प्रधान प्रायुर्वेद का नाम में प्रायर्वेद सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना की गई उपदेश पुनर्वसु अत्रेय को दिया, जिससे अग्निवेश प्रादि वा समाज उन ग्रन्थों से भली भांति परिचित है। छः शिष्यों ने विधिवत प्रायुर्वेद का अध्ययन कर उसका किन्त अनेक जैन विद्वानों ने भी प्रायुर्वेद सम्बन्धी अनेक ज्ञान प्राप्त किया और अपने-अपने नाम से पृथक-पृथक __ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की है जिनमें दो चार को छोड़
इसा प्रकार, दिवोदास कर शेष सभी प्रायुर्वेद के ग्रन्थों से वैद्य समाज अपरिचित धन्वन्तरि ने सुश्रतप्रभूति शिष्यो को शल्यतन्त्रप्रधान ही है। इसका एक कारण यह भी है कि उनमें से अधिमायुर्वेद का उपदेश दिया। उन सभी शिष्यो ने भी अपने कांश ग्रन्थ प्राज भी प्रप्रकाशित ही है। गत कुछ समय से अपने नाम से पृथक्-पृथक् संहितामों का निर्माण किया, शोधकार्य के रूप में राजस्थान के जैन मन्दिरो में विद्यमान जिनमें से केवल सुश्रुतसंहिता ही माज उपलब्ध है। शास्त्र भण्डारों का विशाल पैमाने पर अवलोकन किया तत्पश्चात् अनेक प्राचार्यो, विद्वानों और भिषक श्रेष्ठों गया और उनकी बहदाकार सूची बनाई गई। यह सूची द्वारा यह परम्परा विस्तार और प्रसार को प्राप्त कर गत दिनों विशाल ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित की गई है। सम्पूर्ण भारतवर्ष में व्याप्त हुई।
यह ग्रन्थ चार भागों में विभक्त है। इस सूची-ग्रन्थ के जिस प्रकार वैदिक वाङ्मय और उससे सम्बन्धित चारो खण्डो क
चारों खण्डों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि इनमें, साहित्य में भायुर्वेद के बीज प्रकीर्ण रूप से विद्यमान है, अनेक ऐसे अन्य विद्यमान है जो प्रायुर्वेद विषयक है और उसी प्रकार जैन वाङ्मय और इतर जैन साहित्य मे जिनकी रचना जैनाचार्यों द्वारा की गई है। पर्याप्त रूप से मायुर्वेद सम्बन्धी विभिन्न विषयों का जैन दर्शन के विभिन्न प्रागम ग्रन्थों का अध्ययन