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कालिदास के काव्यों में हिंसा और जैनत्व
तुम्हें यह सम्मोहन नामक अस्त्र देता है जो बिना हिंसा २.सत्वं प्रसस्ते महिते मदीये वसंश्चतुर्थोऽग्निरिवाम्यगारे। किए शत्रुपों को पराजित करने वाला है ----
वित्राण्यहाग्यहसि सोढुमर्हन यावद्यते साधयित त्ववर्थम सम्मोहनं नाम सखे ममास्त्रं प्रयोगसंहारविभक्तमन्त्रम् ।
-रघु० ५.२५ गांषर्वमावत्स्व यतः प्रयोक्तुनं चारिहिसा विजयश्च हस्त ॥ ३. महंणामहंते चक्रुमनयो नयचक्षुषे। -रघु० १.५५
--- रघु० ५.५७ ४. मद्यप्रभृति भूतानामभिगम्योस्मि शुद्धये। इसी प्रकार, रघुवंश के सातवें सर्ग में अज ने अपने यदध्यासितमहंद्भिस्तद्धि तीर्थ प्रचक्षते ।। शत्रुनों पर उस सम्मोहन अस्त्र का प्रयोग कर उन्हें हरा
-कुमारसम्भव, ६.५६ दिया, किन्तु मारा नहीं -
ये सब तथ्य स्पष्ट करते है कि कहाकवि कालिदास यशोहतं सम्प्रति राघवेण न जावितं वः कृपयेतिवर्णा । अहिंसा-अनुरागी थे और जैन दर्शन के मौलिक सिद्धान्तो
-रघु० ७.६५ मे उनका अपना विश्वास एवं प्रादर था। कुमारसम्भव इन सब प्रकरणो से कविवर कालिदास की प्राणिमात्र के पांचवें सर्ग में पार्वती की कठोर तपस्या का जो सन्दर के प्रति दया व अहिसा की उत्कृष्ट भावना प्रकट होती चित्रण कवि ने किया है और रघुवंश के पाठवे सर्ग के
मन्त में मज द्वारा भामरण उपवास करते हुए उसके यही कारण है कि कविवर कालिदास ने दशरथ के शरीर-त्याग का जो वर्णन किया है, वह उस समय के उस शिकार खेलने की निन्दा की है, जिसमे उसके हाथो समाज पर जैन धर्म के प्रभाव को ही सूचित करता है। श्रवणकुमार का वध हो गया था। कालिदास ने अभिज्ञान
कालिदास के समय जैन धर्म हिसाप्रधान यज्ञ-यागादि शाकुन्तल के दूसरे अक मे भी माघव्य के मुख से शिकार का विरोधी होते हुए भी सुधारवादी था, क्रान्तिकारी खेलने को बुरा ठहराया है -मन्दोत्साहः कृतोस्मि मृगया
नही। उसने प्राचार की शुद्धता, कठोर तप एव सत्य, पवाविना माषव्येन । इसी नाटक के छठे अंक में कोतवाल
अहिंसा, अस्तेय तथा अपरिग्रह पर विशेष बल दिया ने मछुवे के व्यवसाय को बरा कह कर उसका मजाक
समाज में फैली हई बुराइयो को इस प्रकार सुधारने का किया है और फिर उसके मुह से यज्ञ में पशु मारने वाले
प्रयत्न किया कि उसका यह कार्य किसी को खटका नही 'श्रोत्रिय ब्राह्मण' के रूप में व्यग्य से कटाक्ष किया गया
जब कि बौद्ध धर्म की शिक्षाप्रो ने तात्कालिक समाज के
मूल प्राधार पर ही कुठाराघात कर दिया, जिससे सब इससे तो इनकार नही किया जा सकता कि उस
सामाजिक बघन छूट गये। समाज इस अवस्था को अधिक ममय शिकार खेला जाता था। यज्ञो मे पशु-हिंसा को
न सह सका और उसके विरोध का परिणाम यह हमा कि जाती थी। किन्तु यह सब कालिदास को रुचिकर न था।
भारत से बौद्ध धर्म बिलकुल ही लुप्त हो गया। जैनधर्म उस युग मे बलात् ठूसी गई अहिसा के प्रति विद्रोह भावना
मे दीक्षित होने वालो को खान-पान, रहन-सहन आदि के होने पर भी भारतीय नागरिक के हृदय पर अहिंसा की
सम्बन्ध में कठोर नियमो का पालन करना पड़ता था। गहरी छाप अवश्य पड़ गई थी। इसमे पाश्चर्य नही कि प्रतः अवसरवादी प्रवाछनीय व्यक्तियों के लिए उसमें कवि कालिदास की इस अहिंसा, प्रेम प्रौर दया की कोई माकर्षण न था। इसलिए यद्यपि जैन धर्म का प्रचार भावना के अन्तस्तल मे जैनधर्म का प्रभाव अन्तनिहित है। उतना अधिक नही हमा, जितना बौद्ध धर्म का, किन्तु वह
कवि ने अनेक स्थानो पर जैनों के माराध्य 'महन' माज भी जीवित है तथा भारतीय समाज पर उसका शब्द का प्रयोग बड़े प्रादर पूवक किया है जो इस प्रसंग प्रभाव चिरस्थायी है। वर्तमान भारतीय समाज मे जो ब्रत. में विचारणीय है
उपवास तथा महिंसा की परंपरा पाई जाती है उसका १. "तवाहतो नाभिगमेन तप्तं मनो नियोगक्रिययोत्सुकं मे। बहुत कुछ श्रेय जैनधर्म को ही है।