Book Title: Anekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ १४, वर्ष २६, कि० १ भनेकांत दायक होगा। भटकी हई विपथगामी मानवता को सही दिशा-दर्शन जो चीजो का मम्यकदी और सम्यकज्ञानी है, वही प्रदान करे। उनका सच्चा, मम्पूर्ण या निर्बाध भोक्ता हो सकता है। + + + ऐसा भोग क्षणिक और खडित नही होता । वह नित्य और महावीर ने कहा है कि वस्तु मात्र अनेकान्तिक है, प्रखण्ड भोग होता है। उसमे वियोग नही, पूर्ण योग है, यानी उममे अनन्त गुण, धर्म, पर्याय एक साथ विद्यमान पूर्ण मिलन है। उसमें कभी कुछ खोता नही, मच मदा को है। इसलिए वस्तु के अलग-अलग पहलुमो को अनेकान्तिक पा लिया जाता है, सबके माथ हम मदा योग और भोग दृष्टि में देखना चाहिए। वस्तु प्रतिक्षण गतिमान, प्रगतिमे एक साथ रहते है । जा चीजो का मिथ्यादर्शी और मान और परिणमनशील है। उसमें प्रतिपन नये रूप, मिथ्याज्ञानी है, वह उनका मच्चा और पूर्ण भोक्ता नही भाव और परिणाम पैदा हो रहे है । इसलिए कभी भी वस्तु हो सकता। ज्ञानी वस्तुओं का स्वामी होकर उन्हे भांगता के बारे में अन्तिम कथन नहीं करना चाहिए । अपेक्षा के है। अज्ञानी उनका दास हो कर उन्हे भोगता है। स्वामी माथ ही, वस्तु के एक गुण, धर्म, भाव-रूप विशेष का का भोग मुक्तिदायक और प्रानन्ददायक होता है, दाम का कथन करना चाहिए। वस्तु अनेकान्तिक है, तो उसका भोग बन्धनकारा और कष्टदायक होता है। सच्चा दर्शन-ज्ञान भी ऐकान्तिक नही, अनेकान्तिक ही हो इस प्रकार हम देखते है कि जैनधर्म जीवन-जगत के मकता है। दम तरह हम देखते है कि अनेकान्त दृष्टि ही भोग का विरोधी नहीं। वह केवल मच्चे और अखण्ट गैनधर्म की प्राधारभूत चट्टान है। भोग की कला सिखाता है। प्राज का मनुष्य से अग्रण्ट आज का मनुष्य भी किमी अन्तिम कथन या अन्तिम पौर नित्य भोग के लिए हीनो छटपटा रहा है। प्रति- धमदिश का कायल नही। वह हर तरह की धार्मिक मोहवादी पश्चिमी जगत् अब क्षणिक और खण्ड भोग में कट्टरवादिता से नफरत करता है। वह 'डायनमिक' यानी ऊब गया है, थक गया है, विरक्त तक हो गया है। वह गतिशील है, और जीवन जगत के गति-प्रगतिशील रष्टिभोग छोड़ने को तैयार नही, मगर उसे अचक और पूर्ण कोण को ही पमन्द करता है। जैनधर्म का अनेकान्त अाधु. तृप्तिदायक, नित-नव्य भोग की तलाश है। भगवान निक मानव-चेतना के उम 'डायनमिज्म' यानी गत्याकुन्दकुन्दाचार्य न 'ममयमार' में उसी मच्चे, सार्थक और त्मकता का सर्वोपरि दिग्दर्शक और समर्थक है। पूर्ण तृप्तिदायक भोग की शिक्षा दी है। आज के भोग में अनेकान्तिक वस्तु-स्वभाव का मही दर्शन-ज्ञान पाकर, ऊबे हुए, फिर भी परम भोग के अभिलापी मनुष्य के लिए वस्तुप्रो और व्यक्तियों के साथ सही सम्बन्ध में जीवन 'समयसार' एक चिन्तामणि जीवन-जी है। जीने की कला सिखाने के लिए ही जेन द्रष्टायो ने सत्य, परा पूर्वकाल में गजपि भरत चक्रवतीं और जनक हिमा, प्रचौर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के प्राचार धर्म ऐसे ही परम भोक्ता योगीश्वर हुए हे । वे जगत् के का विधान किया है : सत्य यानी यह कि हम चीजो को विषयानन्द ग भी बेहिचक उन्मुक्त तैरते हा पूर्ण प्रात्मा- सत्य देखे, जाने और सत्य ही कहे , अहिमा यानी यह नन्द मे मगन रहते थे । जैनधर्म में ही नहीं, प्रथमत: पोर कि हर चीज को अस्तित्व में निर्बाध और सुरक्षित रहने अन्ततः पूरे भारतीय प्राक्तन् धर्म ने यही शिक्षा दी है। का अधिकार है। हम परस्पर एक दूसरे को बाधा या बीच के ऐतिहासिक चक्रावर्तनो के कारण जो प्रतिवादी हानि न पहुँचायें । हम खुद जिम तरह सुख-शान्ति से जीना और प्रतिक्रियाग्रस्त वैराग्यवाद का प्रभूत्व हुअा है, उसमे चाहते है उसी तरह औरो को भी सुख-शान्ति से जीने भारतीय धर्म का मर्म ही लुप्त हो गया । आज के भारतीय दें, यानी सह-अस्तित्व जीवन की शर्त है। प्रचौर्य यानी जैन योगियों, चिन्तकों और मनीषियो का यह अनिवार्य यह कि सब वस्तुओं पर सबका समान अधिकार है और कर्तव्य है कि हमारे धर्म के मर्म की सच्ची पहचान वे वस्तु-मात्र अपने पाप में स्वतन्त्र है। परस्पर एक दूसरे के माज के जगत् के समक्ष प्रकट करे और इस युग की कल्याणार्थ हम वस्तुभो पर व्यक्तियो के साथ विनियोग

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 ... 181