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जैन संस्कृत नाटकों को कथावस्तु : एक विवेचन
अपत्यजीवितस्यार्थे प्राणानपि जहाति या।
के उपलक्ष मे हया था। इसका नायक दान, रण व तप में त्यजन्ति तामपि फरां मातरं झरहेतवे ।' अग्रणी दशार्णभद गजा था। प्रस्तुत कृति में नायक के
लेखक मृच्छकटिक व दशकुमार से प्रभावित जान दीक्षा लेने का वर्णन है। इन्द्र जिनेन्द्र की वन्दना करते पडता है।
हा उनके धर्माम्युदय की प्रशंसा करता है --- प्रबुद्ध रोहिणेय' - जयप्रभमूरि के शिष्य रामभद्रमुनि
धर्माभ्युदयस्स ते जयति ।' गचित प्रबद्धरौहिणेय छ अंको का प्रकरण है । विन्टर. इस के बाद उसने दशार्णभद्र को नमस्कार करते हुए नित्म कवि का प्राविर्भाव ११८५ ई० भानन है। प्रस्तुन कहा--- नाटक में डाक रोहिणेय के कान में महावीर की वाणी
महो मति रहो मूतिरहो स्फूतिः शमश्रियः । पड़ जाने में उसका अज्ञान दूर हो जाता है और वह
वीतरागप्रभोमन्ये शिष्योऽभूदेव तावृशः ॥' महावीर के चरणो की मेवा करने का निश्चय करता है।
इसमें धर्म प्रचार का कार्य मौष्ठवपूर्वक व्यजना से उसे अपने किए पर प्रायश्चित्त होता है। अन्त में राजा
किया गया है यथा, द्वारा उमका अभिनंदन किया जाता है।
जिनराज किवदन्ती वन्दितुमत्कण्ठिता नातिरूपास्ति । इममे डाक को प्रकरण का नायक बनाया गया है।
सद्धर्मवचःश्रवण पुण्यगुरुतरंभवति ॥
इसके ५ दृश्यो मे इन्द्र, शची, बहम्पनि, नन्दन, चन्दन इसका कथानक गम्पूर्ण सस्कृत नाटक साहित्य में अन्ठा
रति, प्रीति, गजा व मन्त्री ग्रादि दिव्य व प्रदिव्य पात्रो को ही है । लेखक जैन है, फिर भी पूर नाटक म कही भी जैनधर्म के प्रचार का बोझिल कार्यक्रम नहीं अपनाया
प्रस्तुन किया है। यह श्रीगदिल कोटि ना उपरूपक है।
करुणावज्रायुद्ध'-- इस रूपक के रचयिता बालचन्द्रगया है। गौण रूप में जैनवम क प्रचार का खजान
मूरि (१२४० ई० के पूर्व) गुजरात के सुप्रसिद्ध महामत्री से नाटक की कलात्मकता अक्षुण्ण रह सकी है। जानक्षेत्र
व साहित्यकार वस्तुपाल के समकालीन थ। इस कृनि म म सद्वृत्तपरायण गतो के पान जान गे डाकुनो की मना
वज्रायद्धनामक राजा की जनधर्म के प्रति अनुपम निष्ठा वृत्ति में परिवर्तन हो गकता है। प्रबुद्धगैहिणय उसका
का वर्णन हुमा है। वह एक श्येन से कबतर की रक्षा के पूर्वरूप उपस्थित करता है।
लिए कबूतर के बराबर अपने शरीर का गास देता है, ___ इस युग के कई नाटको में कूट घटना और कुट
पर पूरा न होते देख अपने शरीर को हो तराजू के पलट पुरुषों का प्राचुर्य मिलता है। इममे गेट ने डाक को पकड़न
में रख देता है। देवगण प्रकट होकर राजा की अतिशय के लिए ऐसे कापटिक कम व कूट घटनामा की योजना
प्रगमा करते है। इस कृति म जनधर्म का हो एक मात्र को है--
सद्धर्म बताया गया है जिससे अपवर्ग स्वर्ग और समृद्धि तस्तवुर्घटकटकोटिघटनस्तं घट्टयिष्ये तथा ।"
सब प्राप्य है। और भी-- धर्माभ्युदयः" :-- मेघप्रभाचार्य के धर्माभ्युदय एकांकी एक जैन विना धर्म मन्ये धर्मा कुधीमताम् । का प्रथम अभिनय पाश्वनाथ जिनेन्द्र मन्दिर में यात्रात्मव संवता एवं शोभन्ते पटच्चरपटा इव ।।" १. कौमुदी मित्रानद, ७७ ।
५. प्रबुद्धरौहिणय ३.२२ वद्र. ५-३ । २. भावनगर से प्रकाशित ।
६. भावनगर से प्रकाशित । ३. प्रबुद्धगैहिणेय ६ ३४ ।
७. घर्राभ्युदय ३५ । ४. त्व धन्यः सुकृती त्वगदभुतगुणस्त्व विश्वविश्वोत्तम- ८. वही, ३६ । स्त्वं शाघ्योऽखिलकल्मप च भवता प्रक्षालित चौयं जम। ६. वही, १८ । पुण्यः सर्वजनोनतापरिगतो या भूभवम्वाचित १०. अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर में उपलका, भावनगर यस्तो वोजिनश्वरस्य चरणी लीन शरण्यो भवान से प्रकाशित।
-~-वही ६४०। ११. करुणावनायुद्ध, ४० ।