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अनेकान्त
Oडा० शोभनाथ पाठक, मेघनगर
"प्रने के प्रता: धमाः यस्मिन् स अनेकातः" सभी तदेव प्रतत्, यदेवकं तदेवानेक, यदेव सतदेवासत्, यदेव धर्मों के प्रति समान सद्भावना ही अनेकान्त की वरीयता नित्य तदेवानित्य - इत्येकवस्तुनि वस्तुत्वनिष्पादकारस्परहै। भगवान महावीर प्रणीत दर्शन के चिन्तन की शैली विरुद्धशक्तिद्वय प्रकाशनमनेकान्तः।" का नाम अनेकान दृष्टि और प्रतिपादन की शैली का प्रति जो वस्तु तत्वस्वरूप है वही प्रतत्स्वरूप भी नाम स्याद्वाद है। अनेकान्त दृष्टि का तात्पर्य है वस्तु का
का है, जो वस्तु एक है, वही अनेक भी है, जो वस्तु सन् है सर्वतोमुखी विचार । वस्तु में अनेक धर्म होते है।
वही प्रसत् भी है, जो वस्तु नित्य है, वही अनित्य भी है। महावीर ने प्रत्येक वस्तु के स्वरूप का सभी दृष्टियों इस प्रकार अनेकान्न एक ही वस्तु मे उसके वस्तुत्वसे प्रतिपादन किया। जो वस्तु नित्य मालूम होती है वह गुणपर्याय सत्ता के निष्पादक अनेक धर्मयुगलों को प्रकाअनित्य भी है। जहा नित्यता की प्रतीति होती है, वहा शित करता है। अनित्यता भी अवश्य रहती है। यही नहीं वरन अनित्यता वास्तव में किसी वस्तु की परख केवल एक ही दृष्टि के प्रभाव मे नित्यता की पहचान ही नही हो सकती।
कोण से नहीं की जा सकती, वरन उसे अनेक दृष्टिकोणों नित्यता और अनित्यता सापेक्ष है।
से ही परखा जा सकता है। अतः स्पष्ट होता है कि सभी धर्म मानव कल्याण का सन्देश अपने-अपने
एकान्त दृष्टिकोण को मार्ग दर्शन देने हेतु अनेकान्त का प्रादों के अनुसार देते है। जैन दर्शन में भी यही है ।
प्रतिपादन हुमा। इसकी वरीयता इस उद्धरण से स्पष्ट महावीर ने इसकी महत्ता प्राचार व पिचार की गरिमा
होती है यथासे उजागर की। पानार अहिंसा मूलक है और विचार
"सदसन्नित्यानित्यादिसर्वथै कान्तप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः" अनेकान्तात्मक । तथ्यतः इसकी मूलदृष्टि एक ही है, किन्तु
प्रर्यात् वस्तु सर्वथा सत् है, अयवा अमत् है. नित्य है जब वह दृष्टि प्राचारोन्मुख होती है तब वह अहिंसामुखी
अथवा अनित्य, प्रादि के परखने की पद्धति का नाम है हो जाती है और जब वह विचारोन्मुखी हो जाती है तब अनेकान्तात्मक हो जाती है । अतः स्पष्ट होता है कि जैन
अनेकान्त । किसी वस्तु के परख की अनुभूति की अभिदर्शन प्रादशं और यथार्थ तथा निश्चय और व्यवहार के
व्यक्ति एक साथ हो नही वरन् क्रमानुसार होती है इमी
त्रमबद्ध अभिव्यक्ति को पद्धति को स्याद्वाद' कहा गया है। सुदृढ धरातल पर प्रतिष्ठित है। अहिंसक प्राचरण प्रौर अनेकान्तात्मक चिन्तन ही मानव को सच्चा सुख देने में
स्यात्' शब्द तिङन्त प्रतिरूप अव्यय है। इसके सक्षम है।
प्रशंसा, प्रस्तित्व, विवाद, विचारणा, अनेकान्त सशय, प्रश्न अनेकान्त शब्द बहुव्रीहि समास युवत है, जिसरा आदि अनेक अर्थ है। महावीर जी ने इसे अनेकान्त कहा या तात्पर्य है अनेक अर्थात् एक से अधिक धो, रूपो, गुणों स्याद्वाद प्रर्थात् अनेकान्तात्मक वाक्य । स्पावाद की
और पर्यायों वाला पदार्थ । पदार्थ अनेक गुण रूपात्मक अन्य व्युत्पत्तिया भी है । सामान्यतः यह शब्द स्यात्' और होने के साथ-माथ विवक्षा और दृष्टिकोणों के प्राधार पर 'वाद' इन दो पदो से बना है 'स्यान' का अभिप्राय है भी अनकान्त है। एक पौर अनेक की इम यथार्थना को कवित'। कथात् अर्थात प्रमुक निश्चिन अपेक्षा से बडी गरिमा के साथ परखा गया है यया --'यदेव तत् वस्तु अमुक धर्मशाली है। यह गायद, संभावना और