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६२, वर्ष २६, कि० २
विग्रहों की रचना को जाती है । सिंह, वृषभ, कमल इत्यादि चिह्नांकन से तीर्थंकरों के पृथक-पृथक नामरूप के अस्तित्व का ज्ञापन मूर्ति में किया जाता है । यदि पाषाण को 'सुवर्ण' कहा जाए तो मूर्तियों को कटक, रूपक, कुण्डल कह सकते है । जैसे 'कुण्डल' स्वरूप में 'उत्पाद' अवस्था को प्राप्त हुए सुवर्ण को कोई सुवर्ण नहीं कहता 'कुण्डल' कहता है, उसी प्रकार विधिसम्मत स्थापनाओं के निमित्त देव प्रतिमा को पाषाण नही कहा जा सकता । प्रतिमा के पूज्य श्रासन पर प्रतिष्ठित होने वाली मूर्ति को मत्रों से, प्रतिष्ठा विधि से लक्षणानुसार बनाये गये मन्दिर मे विराजमान किया जाता है और उसमे देवत्व की भावना का विन्यास किया जाता है। वह प्रतिमा ढालुषो को प्रास्था को केन्द्रित करती है और इसके निमित्त से मदिरो श्रौर चैत्यालयों में धर्म के घण्टानाद सुनायी देते है । मत्र, स्तुति स्तोत्र, पूजा प्रक्षाल, अर्चन बन्दन होते है और जनसमुदाय की उदास भावनाओ को उस प्रतिमा से सम्बन मिलता है। इस प्रकार धर्म समाज धौर संस्कृति के उत्थान में मूर्तिपूजा का महत्व प्रतिरोहित है । मूर्ति मे संस्कारों की भावना देने से देवस्य की प्रतिष्ठा होती है। इसलिए मन्दिरों में स्थापित प्रतिमा और बाजार मे बिकते हुए तद्रूप खिलौनों में सस्कार प्रभाव से कोई साम्य नही । मूर्ति को पवित्र मन्दिर की ऊंची वेदी पर विराजमान कर अपने मनमन्दिर मे स्थापित करना ही उसकी सच्ची प्रतिष्ठा है । यदि पाषाण और मूर्ति में भेद नही मानोगे तो स्त्री, माता, भगिनी मे भेद मानने का क्या ग्राधार रहेगा ? क्योंकि स्त्रीपर्याय से तो ये समान है' । अपेक्षा और सम्बन्ध-व्यवच्छेद से ही इनमे व्यावहारिक भेद किया गया है । वही प्रात्मानुशासित, पूज्यत्व प्रतिष्ठान मूर्ति में किया गया है। हमारे भारतीय ध्वज में धौर दूकानो के उसी तिरंगे कपड़े मे क्या अन्तर है? वस्त्रांति तो दोनो में एक ही है परन्तु लाल किले पर राष्ट्रध्वज के रूप मे तिरंगा ही क्यों लहराया जाना है? क्योकि २१ जुलाई १४७० जवाहरलाल नेहरू के प्रस्ताव पर एक निश्चित प्राकार मे भगवे, श्वेत और हरे तीन रंगो
अनेकान्त
में क्रमश: निष्काम त्याग, पवित्रता और सत्यता तथा प्रकृति के प्रति स्नेह को प्रेरित करने वाले प्रतीकों में राष्ट्रध्वज का स्वरूप स्थिर किया गया, जिसके बीच में सत्य, ज्ञान और नैतिकता की घोर सकेत करने वाले 'धर्मचक्र' को स्थान दिया गया। इस प्रकार उसे वस्त्रमात्र से भिन्न प्रतीक रूप में मान्यता देकर राष्ट्र निशान' के रूप में मान्य किया गया। यही इसका उत्तर है और इसी के साथ सामान्य 'पापा' और 'मूर्ति' के वैशिष्ट्य का उत्तर भी सम्मिलित है। राष्ट्रध्वज जैसे राष्ट्र की स्वतन्त्रता का प्रतीक है उसी प्रकार प्रतिमा समाज को दृढ प्रस्थाओं का प्रतीक है। मूर्ति के साथ मनुष्य की पवित्र भावनाओ का सनातन सम्बन्ध है । मूर्ति का दर्शन करने से मूर्ति मे प्रतिष्ठा प्राप्त देव का देवत्व दर्शन करने वाले में संक्रमित होता है याने बारमा मे देवर की प्रतिष्ठा करना ही पूजा का उद्देश्य है। मूर्तिपूजा मे यह विशेष स्मरणीय है कि मनुष्य अपने सस्कारो के उपयुक्त वातावरण को ढूंढता रहता है और वातावरण मिलने से उन भावनाओ और संस्कारो को ही बलवान् करता है । किसी व्यक्ति को सिनेमा देखने की यादत है । यह नयीनयी तस्वीरें देखने के लिए अनेक सिनेमा घरों में विविध समय पर पैसे देकर जाता है और अपने मन के अनुकूल उपस्थित उस 'छविप्रकन' को देखता है ।। इससे उसके मन में स्थित चित्रानुबन्धी राग को पोषण मिलता है, और उसी राग को पुष्ट करने पर पुनपुन. उन छवियों को देखना चाहता है भगवान् के देवस्वरूप को देखने के लिए भी सुसंस्कृत ग्रात्मा मन्दिर जाने का व्रत लेता है और अपने मन मे भावना में पूर्व से ही विद्यमान सात्विक प्रवृत्ति के पोषण के साधन मूर्ति में पाकर और अधिक धर्मानुरागी होता है यो देखा जाय तो चित्रदर्शन और मुनिदर्शन व्यक्ति के मन में संकुचित हो रहे भावों का स्पर्श कर उल्लित वरमित करने में सहायक होते है। एक मंदिरा पीने वाला मद्य बिकने के स्थान को देखकर अपनी 'पाकेट' के पैसे मद्य पीने में लगाता है। वह 'नशा' करके प्रसन्न होता है 'मदिरागृह' और 'पाकेट १. 'नाम्ना नारीति सामान्य भगिनीभार्ययोरिह' - भगिनी और भार्या मे नारीत्व सामान्य धम समान रूप से विद्यमान है परन्तु उनमे एक सेव्य है, एक असेव्य है ।
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