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१०६, वर्ष २६, कि०३
अनेकान्त
की। जीवन में कोई एक क्षण ऐमा प्राता है कि हम चार डिग्री से नी तक जल का फैलाव होता है। ठंडा विचारशून्यता की स्थिति में चले जाते है। उन क्षणो मे होने पर भी वह सिकुडता नही है । यह विशेष नियम है। कोई नई स्फुरणा होती है, असभावित और अज्ञात तथ्य केवल सामान्य नियमो के आधार पर वास्तविक घटनामों संभावित और ज्ञात हो जाते है। ये दो संभावनायें थी, के बारे में विधानात्मक बात नही कही जा सकती। यह प्राचीन दार्शनिक के सामने । वह उन दोनों का प्रयोग सिद्धात सैद्धातिक विज्ञान, चिकित्सा और कानून तीनो पर करता था। वर्तमान के वैज्ञानिकों ने भी यत्र-तत्र इन लागू होता है। विशेष नियम के आधार पर निर्णयक दोनों सम्भावनामों की चर्चा की है। विकल्पशून्य अवस्था भविष्य-वाणिया की जा सकती है, जैसे एक वैज्ञानिक में चेतना के सूक्ष्म स्तर सक्रिय होते है और वे सूक्ष्म सत्यो जल की चार डिग्री से नीचे की ठडक के आधार पर जलके समाधान प्रस्तुत करते है। स्वप्नावस्था में भी स्थूल वाहक पाइप के फट जाने की भविष्यवाणी कर देता है। चेतना निष्क्रिय हो जाती है। उस समय सूक्ष्म चेतना यह सब तर्क का कार्य है। उसका बहुत बड़ा उपयोग है, किसी सूक्ष्म तत्त्व से संपर्क करा देती है। मैं नही मानता फिर भी उसे निरीक्षण का मूल्य नहीं किया जा सकता। कि प्राज के दार्शनिक मे क्षमता नही है। उसकी क्षमता जब निरीक्षण के साक्ष्य हमारे पास नहीं है, तब हम तर्क के परतों के नीचे छिपी हुई है। वह दार्शनिक की नियमों का निर्धारण किस आधार पर करेंगे और तर्क का अपेक्षा ताकिक अधिक हो गया है। उसके निरीक्षण की उपयोग कहां होगा? दर्शन के जगत में मैं जिस वास्तक्षमता निष्क्यि हो गई है। दर्शन की नई संभावनाप्रो विकता की अनिवार्यता का अनुभव कर रहा है, वह तीन पर विचार करते समय हमे वास्तविकता की विस्मृति नही सूत्रों में प्रस्तुत है :करनी चाहिए। तर्क को हम अस्वीकार नही कर सकते । १. नए प्रमेयों की गवेषणा और स्थापना । दर्शन से उसका सम्बन्ध विच्छेद नही कर सकते । पर २. मूक्ष्म निरीक्षण को पद्धति का विकास । इस सत्य का अनुभव हम कर सकते हैं कि तर्क का स्थान ३. सूक्ष्म निरीक्षण की क्षमता (चित्त की निर्मलता) दूसरा है, निरीक्षण और परीक्षण का स्थान पहला । का विकास । 'अनुमान' मे विद्यमान 'अनु' शब्द इसका सूचक है कि इस विकास के लिए प्रमाणशास्त्र के साथ-साथ योगपहले प्रत्यक्ष ओर फिर तर्क का प्रयोग । तर्क-विद्या का शास्त्र, कर्मशास्त्र और मनोविज्ञान का समन्वित अध्ययन एक नाम 'ग्रान्वीक्षिकी' है। ईक्षण के पश्चात् तक हो होना चाहिए। इस समन्वित अध्ययन की धारणा सकता है, इसीलिए इसे 'प्रान्वीक्षिको कहा जाता है। मस्तिष्क में नही होती तब तक सुक्ष्म निरीक्षण की बात निरीक्षण या परीक्षण के पश्चात् नियमो का निर्धारण सफल नही होगी। योग दर्शन का महत्त्वपूर्ण अंग है। किया जाता है। उन नियमो के आधार पर अनुमान
उसका उपयोग केवल शारीरिक अवस्था तथा मानसिक किया जाता है। प्रायोगिक पद्धतियां हमारे लिए अन्तिम तनाव मिटाने के लिए ही नहीं है, हमारी चेतना के सूक्ष्म निर्णय लेने की स्थिति निर्मित कर देती है। वे स्वयं स्तरो को उद्घाटित करने के लिए उसका बहुत बड़ा मूल्य सिद्धान्तों का निरूपण नहीं करती। तर्क ही वह साधन है, है। सूक्ष्म सत्यो के साथ संपर्क स्थापित करने का वह एक जिसके अाधार पर निरीक्षित तथ्यों से निष्कर्ष निकाले सफल माध्यम है। महर्षि चरक पौधों के पास जाते और जाते है और उनके आधार पर नियम निर्धारित किये उनके गुण-धर्मों को जान लेते थे । सूक्ष्म यत्र उन्हे उपलब्ध जाते है। इस प्रक्रिया का अनुसरण दर्शन ने किया था नही थे। वे ध्यानस्थ होकर बैठ जाते और पौधों के गुणपौर विज्ञान भी कर रहा है। वैज्ञानिकों ने परीक्षण के धर्म उनकी चेतना के निर्मल दर्पण में प्रतिबिम्बित हो पश्चात् इस नियम का निर्धारण किया कि ठंडक से सिकु- जाते । जैन वाङ्मय मे हजारों वर्ष पहले वनस्पति प्रादि के इन होती है और उष्णता से फैलाव । यह सामान्य नियम वियय मे ऐसे अनेक तथ्य निरूपित है जो ध्यान की विशिष्ट सब पर लागू होता है, पर इसका एक अपवाद भी है। भूमिकामों में उपलब्ध हुए थे। (शेष पृ० ११५ पर)