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स्वाध्याय
0 उपाध्याय मुनिश्री विद्यानन्न "णवि अस्थि वि य होहदि, सज्झायसमं तवो कम्मं ॥"
__-प्राचार्य कुन्दकुन्द, मूलाचार १०/८२ 'स्वाध्याय' तप के सामान दूसरा कोई कार्य न है और न होगा।
पशु जीवन से श्रेष्ठ है, क्योकि पशु उसी प्रकार अनेक दार्शनिको, चिन्तनशीलो, विचारकों और मनुष्य के विवेक मे अन्तर है। पशु का विवेक एवं विद्वानों के द्वारा प्रतिपादित अनुभन तथ्यों की एकपाहार, निद्रा, भय और मथुन तक सीमित है किन्तु मनुष्य एक शब्द राशि से, भावसम्ादा से, अर्थविशिष्टता से का विवेक इससे ऊपर उठ कर चिन्तन की असीमता को ग्रन्थ रूप में जन्म लेकर ज्ञान हमारे कृपानु पूर्वजो ने, मापता है। उसकी जिज्ञासा से दर्शन शास्त्रों का जन्म पूर्ववर्ती विचारको ने, हमारे लिए छोड़ा है। जैसे जलहोता है, उसके ज्ञान से स्व-पर की भेद-विद्या का कणो से कुम्भ भर जाता है उसी प्रकार अनेक दार्शनिकों प्रादुर्भाव होता है। वह इह और अपरत्र लोकों के विषय चिन्तनशीलो, विचारको एव विद्वानों के द्वारा प्रतिपादित में मात्ममन्थन की छाया मे नवीन उपलब्धियो से मानव अनुभत तथ्यों की एक-एक शब्दराशि से, भाव सम्पदा समाज के बुद्धि, चिन्तन और चेतना के घरातल का से, अर्थविशिष्टता से ग्रन्थरूप में जन्म लेकर ज्ञान-विज्ञान नवीन निर्माण करता है। मैं कौन ह? जन्म-मरण क्या
की अपार विभूतियों ने हमारे प्रात्मदर्शन के मार्ग को
का अपार विभूतिया न है ? संसार से मेरा क्या सम्बन्ध है ? मुझे कहाँ जाना प्रशस्त किया है। उन मारस्वत महषियों के अपार ऋणाहै? अनन्तानबन्धी कर्मशृंखला का अन्त कहा है ? नबन्ध से हम उऋण नहीं हो सकते । जब किसी ग्रन्थ इत्यादि दार्शनिक प्रश्नावली के ऊहापोह मनुष्य मे ही को पढ़ते है, उसे अल्पकाल मे ही पढ़ लेते है, किन्तु उसकी हो सकते है। चिन्तन की इस सहज धाग का उदय सभी एक-एक शब्द-योजना मे, पक्तिलेखन में, विषय प्रतिमानवों में होता है किन्तु कुछ लोग ही इस अनाहत पादन में और अन्य परियोजन की प्रतिपादन विधि में ध्वनि को सुन पाते है। सुनने वालो मे भी कुछ प्रतिशत मूल लेखक को, विचारक को कितने दिन, मास, वर्ष व्यक्ति ही गम्भीरता से विचार कर पाते है और उन लगे होगे, कितने काल की अधीत विद्या का निचोड़ विचारकों में भी बहुत थोडे लोग होते है जो अपने चिन्तन उसने उसमे निहित किया होगा इसे परखने का तुलादण्ड की परिणति से चारित्र को कृतार्थ करते है, क्योंकि 'बद्धः हमारे पास क्या है ? तथापि यदि हमने किसी की रचना फलं ह्यात्महित प्रवृत्तिः' अर्थात् आत्महित का ज्ञान चिन्तन- के एक शब्द को, प्राधे मूत्र को और एक पंक्ति-श्लोक शील मनीषियो ने ग्रन्थ भण्डारी के रूप अपनी उत्तराधि. को भी यथावत समझने का प्रयास करने मे अपनी कारिणी मानव पीढी को सौंपा है। एक व्यक्ति किसी आत्मिक तन्मयता लगायी है तो निस्सन्देह वह लेखक एक विषय पर जितना दे नही सकता, उतना अपरिमित स्वर्गस्थ होकर भी कृतकृत्य हो उठेगा। लेखक के श्रम ज्ञान हमारे कृपालु पूर्वजो ने और पूर्ववर्ती विचारको ने हमारे को उस पर अनुशीलन करने वाले अनुवाचक ही सफल लिए छोडा है। जैसे जल कणों से कुम्भ भर जाता है कर सकते है। जब तक शब्द प्रयुक्त होकर माहित्य में
१. 'स्वाध्याय यदि निरन्तर करोति तथापि कर्म क्षय करोतीति भावः ।'