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भारतीय प्रमाण-शास्त्र के विकास में जैन परम्परा का योगदान
0 मुनि श्री नथमल विचार-स्वातंत्रय की दृष्टि से अनेक परम्परापों का की पृष्ठभूमि में रही हुई अखण्डता से हमें अनभिज्ञ नहीं होना अपेक्षित है और विचार विकास की दृष्टि से भी होने देता। निरपेक्ष सत्य की बात करने वाले इस वास्त
का अपेक्षित नहीं है। भारतीय तत्व-चितन की दो विकता को भला देते है कि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वत्व में
धारा है-श्रमण और वैदिक । दोनो ने सत्य को निरपेक्ष है किन्तु सम्बन्धों के परिप्रेक्ष्य में कोई भी द्रव्य खोज का प्रयत्न किया है, तत्त्र चितन की परम्परा को निरपेक्ष नही है। गतिमान बनाया है। दोनो के वैचारिक विनिमय और व्याप्ति या अविनाभाव के नियमों का निर्धारण संक्रमण से भारतीय प्रमाण शास्त्र का कनेवर उचित सापेक्षता के सिद्धान्त पर ही होता है। स्थूल जगत् के हमा है। उसमें कुछ सामान्य तत्व है और कुछ विशिष्ट। नियम सूक्ष्म जगत् मे खण्डित हो जाते है। इसलिए जैन परम्परा के जो मौलिक और विशिष्ट तत्व है, उसकी विश्व की व्याख्या दो नयों से की गई। वास्तविक या संक्षिप्त चर्चा यहाँ प्रस्तुत है । जैन मनीषियो ने तत्व-चितन में मूक्ष्म सत्य की व्याख्या निश्चय नय से और स्थल जगत अनेकान्त दष्टि का उपयोग किया। उनका तत्व-चितन या दृश्य सत्य की व्याख्या व्यवहार नय से की गई। स्यादवाद की भाषा में प्रस्तुत हुप्रा। उसकी दो निष्प- प्रात्मा कर्म का कर्ता है-यह सभी प्रास्तिव दर्शनों की त्तियां हुई --सापेक्षता और समन्वय । सापेक्षता का सिद्धान्त स्वीकृति है, किन्तु यह स्थूल सत्य है और यह व्यवहार यह है-इस विराट विश्व को सापेक्षता के द्वारा ही नय की भाषा है। निश्चय नय की भाषा यह नहीं हो समझा जा सकता है और मापेजता के द्वारा ही उसकी सकती। वास्तविक सत्य यह है कि प्रत्येक द्रव्य अपने व्याख्या की जा सकती है। इस विश्व मे अनेक द्रव्य है ___ स्वभाव का ही कर्ता होता है। प्रात्मा का स्वभाव चैतन्य
और प्रत्येक द्रव्य अनन्त पर्यायात्मक है। द्रव्यों में पर- है, अत: वह चैतन्य-पर्याय का ही कर्ता हो सकता है। स्पर नाना प्रकार के सम्बन्ध है। वे एक दूसरे से प्रभा- कर्म पौद्गलिक होने के कारण विभाव है, विजातीय हैं। वित होते है। पना परिस्थितिमा है और प्रतक घटनाए इसलिए प्रात्मा उनका कर्ता नही हो सकता। यदि घटित होती है। इस सबकी व्याख्या सापेक्ष दृष्टिकोण प्रारमा उनका कर्ता हो तो कर्म-चक्र से कभी मक्त
कि बिना विसंगतियों का परिहार नहीं किया जा नहीं हो सकता। अतः मात्मा कर्म का कर्ता है' यह सकता ।
भाषा व्यवहारसापेक्ष भाषा है। सापेक्षता का सिद्धान्त समग्रता का सिद्धान्त है। वह हम किसी को हल्का मानते है और किसी को भारी, समग्रता के सन्दर्भ में ही प्रतिपादित होता है। अनन्त किन्तु हल्कापन और भारीपन देश-सापेक्ष है। गुरुत्वाकर्षण धर्मात्मक द्रव्य के एक धर्म का प्रतिपादन किया जाता है, की सीमा में एक वस्तु दूसरी वस्तु की अपेक्षा हल्को या तब उसके साथ 'स्याद्' शब्द जुड़ा रहता है। वह इस भारी होती है । गुरुत्वाकर्षण की सीमा का अतिक्रमण करने तथ्य का सूचक होता है कि जिस धर्म का प्रतिपादन किया पर वस्तु भारहीन हो जाती है। जा रहा है, वह समग्र नही है । हम समग्रता को एक माथ हम वस्तु को व्याख्या लंबाई और चौड़ाई के रूप नही जान सकते। हमारा ज्ञान इतना विकसित नहीं है मे करते है। मूर्त वस्तु के लिए यह व्याख्या ठीक है। कि हम समग्रता को एक साथ जान सकें। हम उसे प्रमूर्त की यह व्यागा नहीं हो सकती। उसमे लंबाई खण्डों में जाना है, किन्तु मापेक्षना का सिद्धान्त खण्ड और चौड़ाई नही है। वह प्राकाश देश का प्रवगाहन