________________
भारतीय प्रमाण-शास्त्र के विकास में जैन परम्परा का योगदान
करती है पर स्थान नही रोकती। अत : लंबाई और यह अभ्युपगम इसलिए सत्य है कि एक क्षण में शब्द चौड़ाई मूर्त-द्रव्य-सापेक्ष है। उष्णता के रूप में विद्य- श्रोत्रेन्द्रिय का विषय बनता है और दूसरे क्षण में वह मान ऊर्जा को गति में बदल देने पर भी उसकी मात्रा प्रतीत हो चुकता है। इस परिवर्तन की दृष्टि में शब्द समान रहती है। यह उष्णता गति-विज्ञान (थर्मोडाय- को अनित्य मानना असंगत नहीं है। मीसांसकों ने शब्द नेमिक्स) का पहला सिद्धान्त है। इसका दूसरा सिद्धान्त के आदानभूत स्फोट को नित्य माना, वह मी अनुचित यह है कि किसी यंत्र में निक्षिप्त ऊर्जा की मात्रा में कमी नहीं है। भाषा वर्गणा के पुद्गल शब्दरूप में परिणत हो जाती है। वह क्रमश : क्षीण होती जाती है। इसलिए होते हैं और वे पुद्गल कभी भी अ-पुद्गल नहीं होते । किसी ऐसे यंत्र का निर्माण संभव नहीं है जिसमे ऊर्जा इस अपेक्षा से उनकी नित्यता भी स्थापित की जा का निक्षेप किया जाए और वह उसके द्वारा सदा गति- सकती है । सापेक्ष सिद्धान्त के अनुसार, वस्तु का निरपेक्ष शील बना रहे । कुछ दार्शनिकों द्वारा यह संभावना व्यक्त धर्म सत्य नही होता। वे समन्वित हो कर ही सत्य की गई है कि हमारे देश और काल में व्यवहार में प्रयुक्त होते हैं। सायण माधवाचार्य ने सर्व-दर्शन संग्रह ऊर्जा की अक्षीणता निष्पन्न नहीं हुई है। पर संभव है नामक ग्रन्थ की रचना की । उसमें उन्होंने पूर्व किसी देश और काल में वह क्षीण न हो और उस देश- दर्शन का उत्तर दर्शन से खण्डन करवाया है और काल में यह संभव हो सकता है कि एक बार यत्र मे अन्तिम प्रतिष्ठा वेदान्त को दी है। प्रखर ताकिक मल्लऊर्जा का निक्षेप कर देने पर मदा गतिशील बना रहे। वादी (ई० ४-५ शती) ने द्वादशारनयचक्र की रचना इन कुछ उदाहरणों से हम समझ सकते है कि विशिष्ट की। उसमे एक दर्शन का प्रस्थापन प्रस्तुत होता है । देश और काल की व्याप्तियां सर्वत्र लागू नहीं होती। दूसरा उसका निरसन करता है। दूसरे के प्रस्थापन का इसीलिए उनका निर्धारण सापेक्षता के सिद्धान्त के तीसरा निरसन करता है। इस प्रकार प्रस्थापन और आधार पर किया जाता है।
निरसन का चक्र चलता है। उममे अन्तिम प्रतिष्ठा साख्यिकी और भौतिक विज्ञान के अनेक किसी दर्शन की नही है। सब दर्शनों के नय समन्वित सिद्धान्तों की व्याख्या सापेक्षता के सिद्धान्त से की जा होते है तब सत्य प्रतिष्ठित हो जाता है। एक एक नय सकती है।
___ की स्वीकृति मिथ्या है। उन सबकी स्वीकृति सत्य __ स्याद्वाद को दूसरी निष्पत्ति समन्वय है। जैन है। इस समन्वय के दृष्टिकोण ने तर्कशास्त्र को वितंडा मनीषियों ने विरोधी धर्मों का एक-साथ होना असभव के वात्याचक्र से मुक्त कर सत्य का स्वस्थ प्राधार नहीं माना। उन्होंने अनुभवसिद्ध अनित्यता प्रादि धर्मों दिया। को अस्वीकार नही किया, किन्तु नित्यता प्रादि के साथ जैन प्रमाणशास्त्र की दूसरी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हैउनका समन्वय स्थापित किया। तर्क से स्थापन और प्रमाण का वर्गीकरण । प्रत्यक्ष और परोक्ष - इस वर्गीतर्क से उसका उत्यापन - इस पद्धति मे तर्क का चक्र करण में संकीर्णता का दोष नही है। इसमे सब प्रमाणों चलता रहता है। एक तर्क परम्परा का अभ्युपगम है का समावेश हो जाता है। हम या तो ज्ञेय को साक्षात् कि शब्द अनित्य है, क्योकि वह कृतक है। जो कृतक जानते है या किसी माध्यम से जानते है। जानने की होता है, वह नित्य होता है, जैसे घड़ा। दूसरी तर्क- ये दो पद्धतिया है। इन्ही के प्राधार पर प्रमाण के दो परम्परा ने इसका प्रतिवाद किया और वह भी तर्क के मूल विभाग किए गए है। बौद्ध और वैशेपिक ताकिकों माधार पर किया कि शब्द नित्य है, क्योकि वह प्रकृतक ने प्रत्यक्ष और अनुमान -- दो प्रमाण माने तो पागम को है। जो प्रकृतक होता है, वह नित्य होता है, जैसे ग्राकाश। उन्हें अनुमान के अन्तर्गत मानना पड़ा और पागम को इन दो विरोधी तों में समन्वय को खोजा जा सकता अनुमान के अन्तर्गत मानना निधिपाद नहीं है। परोक्ष है। विरोष समन्वय का जनक है। शब्द अनित्य है, प्रमाण में अनुमान, प्रागम, स्मृति, तर्क प्रादि सबका