________________
१००, वर्ष २६, कि०३
अनेकान्त
पौर उपादेय का ज्ञान होता है। यदि वह न हो तो दार्शनिक रात-दिन भूख प्यास को भूलकर स्वाध्याय में 'व्यर्थः श्रमः श्रतो', शास्त्राध्ययन से होने वाला श्रम व्यर्थ लगे रहते है। स्वामी गमतीर्थ जब जापान गए तो हैस्वाध्याय करने पर भी मन मे विचारमूढता है, ज्ञान व्याख्यान सभा में उपस्थित होने पर उन्हे पराजित करने नावरण है, तो कहना पड़ेगा कि उसने स्वाध्याय पर की भावना से मंच सयोजक ने बोर्ड पर शुन्य (0) लिख
हकर भी वास्तव में स्वाध्याय नही किया। 'पाणी दिया और भाषण के प्रथम क्षण स्वामी रामतीर्थ को पता कोन दीपेन कि कूपे पतता फलम्', दीपक हाथ में लेकर चला कि उन्हें शून्य पर भाषण करना है। उन्होंने और फिर भी कुएँ में गिर पड़े तो दोपग्रहण का जापानियों की दष्टि में शन्य प्रतीत होने बाले उस अकिचन
नही तो क्या है ? शास्त्रों का स्वाध्याय प्रमोघ विषय पर इतना विद्वत्तापूर्ण भाषण दिया कि श्रोता उनके । यह सूर्य प्रभा से भी बढ़कर है। जब सूर्य वैदुष्य पर धन्य-धन्य और वाह-वाह कह उठे । यह उनके हो जाता है तब मनुष्य दीपक से देखता है और जब विशाल भारतीय वाइमय के स्वाध्याय का ही फल था।
निर्वाण हो जाता है तब सर्वत्र अन्धकार छा काव्यमीमांसाकार राजशेखर ने लिखा है कि जो बहुज्ञ किन्त उस समय अघीतविद्या का स्वाध्याय ही होता है वही व्युत्पत्तिमान होता है। जिसको स्याध्याय
से मालोक का प्राविर्भाव करता है । यह स्वा- का व्यसन है वही बहुज्ञ हो सकता है । गोस्वामी तुलसीपार में उत्पन्न पालोक तिमिरग्रस्त नहीं होता। प्रखण्ड दास ने रामभक्ति के विषय में कहा है कि जैसे कामी
नयर ज्ञान स्वाध्याय-रसिको के समीप 'नन्दादीप' पुरुष को नारी प्रिय लगती है और लोभी को पैसा प्रिय नकर उपस्थित रहता है। स्वाध्याय की उपासना लगता है उसी प्रकार जिसे भक्ति प्रिय लगे वह भगवान
ना जीवन को नित्य नियमित रूप से को पा सकता है। ठीक यही बात स्वाध्याय के लिये लाग माँजने के समान है। एक अच्छे स्वाध्यायी का कहना है होती है। जो व्यक्ति अध्ययन के लिये अपने को अन्य कि यदि मैं एक दिन नही पढ़ता हूं तो मुझे अपने आप सभी ओर से एकाग्र कर लेता है वही स्वाध्याय देवता में एक विशेष प्रकार की रिक्तता का अनुभव होता है के साक्षात्कार का लाभ उठाता है। पढ़ने वालों ने घर और यदि दो दिन स्वाध्याय नही करता हूं तो पास- पर लेम्प के प्रभाव में म'को पर लगे 'बल्बो' के पडोस के लोग जान जाते है और एक सप्ताह न पढ़ने में ज्ञान को ज्योति को बढ़ाया है। जयपुर के प्रसिद्ध पर सारा ससार जान लेता है। वास्तव में यह अत्यन्त विद्वान् प० हरिनारायण जी पुरोहित ने बाजार में किसी सत्य है क्योंकि जिस प्रकार उदर को अन्न देना दैनिक पठनीय पुस्तक को बिकते हुए देखा। उस समय उनके मावश्यकता है उसी प्रकार मस्तिष्क को खुराक देना भी पास पसे नही थे, अत. उन्होने अपना का खोलकर उस अनिवार्य है। शरीर और बद्धि का समन्वय बना रहे विक्रेता के पास गिरवी रख दिया और पुस्तक धर ले इसके लिए दोनों प्रकार का माहार आवश्यक है। गये । इसलिए उनका 'विद्याभूषण' नाम सार्थक था। 'पज्झयणमेव झाणं', मध्ययन ही ध्यान है, सामयिक है, भारत के इतिहास म एस अनेक स्वाध्यायपरायण व्यक्ति ऐसा प्राचार्य कुन्दकुन्द का मत है। संसार में जितने हो चुके है। विदेशों में अधिकाश व्यक्तियों के घरो मे उच्च कोटि के लेखक, वक्ता और विचारक हुए है उनके 'पुस्तकालय' है । वे अपनी प्राय का एक निश्चित यश सिरहाने पुस्तकों से बने है। विश्व के ज्ञान-विज्ञानरूपी पुस्तके खरीदने मे व्यय करते है। धर्म-ग्रन्थों का दैनिक तुलधार को उन्होने प्रशान्त भाव से प्रांखों की तकली पारायण करने वाले स्वाध्यायी प्राज भी भारत में वर्तमान पर अटेरा है और उसके गुणमय गुच्छो से हृदय-मन्दिर है। वे धार्मिक स्वाध्याय किये बिना अन्न-जल ग्रहण नहीं को कोषागार का रूप दिया है । लेखन की प्रस्खलित करते । 'स्वाध्यायान् मा प्रमद', स्वाध्याय के विषय मे सामर्थ्य को प्राप्त करने वाले रात-दिन श्रेष्ठ साहित्य के प्रमाद मत करो । स्वाध्यायशील अपने गन्तव्य मार्ग को म्वाध्याय में तन्मय रहते है, बड़े-बड़े अन्वेषक और स्वयं दृढ निकालते है। अज्ञान के गज़ पर स्वाध्याय