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प्रोम् महम्
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धरविधानम् । सकलनविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
वर्ष २६ किरण ३
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
वीर निर्वाण सवत् २५०२, वि० म० २०३२
जुलाई-सितम्बर
१६७६
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उवसग्गहरं उवसग्गहरं पासं पासं वंदामि कम्मघणमुक्कं । विसहर-विसणिण्णासं मंगल-कल्लाण-प्रावासं ॥१॥ विसहर फुलिगमतं कंठे धारेई जो सया मणुप्रो।
तस्स गहरोगमारो दुट्ठजरा जंति उसामं ॥२॥ चिठ्ठउ दूरे मंतो, तुज्झ पणामोवि बहुफलो होइ । णरतिरिए सुवि जीवा पावंति ण दुक्खदोगच्चं ॥३॥ तुह सम्मते लद्धे चितामणि कप्पपायवाभहिए। पावंति अविग्घेणं जीवा अयरामरं ठाणं ॥४॥ इन संथग्रो महायस ! भत्तिब्भर निन्भरेण हिपएण । ता देव दिज्ज बोहिं भवे भवे पास जिणचंद ॥५।। ॐ अमरतरु कामधेण चिन्तामणि कामकुंभमाइया । सिरिपासनाह सेवाग्गहाण सव्वे वि दासत्तं ।।६।। 'उपसर्गहरं स्तोत्र कृतं श्रीभद्रबाहुना। ज्ञानादित्येन सघाय शान्तये मंगलाय च ।।'
-श्रीभद्रबाहु विरचितम् अर्थ-मैं घातिय कम से विमुक्त उपसर्गहारी भगवान श्री पार्श्वनाथ की वन्दना करता हूं। भगवान विषधर के विप का मन करने वाले है तथा मंगल एव कल्याण के निवास हैं। विषहरण शक्ति से स्फलिग के समान दोप्तिमान इस स्तोत्र को जो मनुष्य नित्य कण्ठ में धारण करता है (कण्ठस्थ रखता है, कम द्वारा उच्चारण करता है। उसके ग्रहपाड़ा, रोग, महामारो तथा वार्धक्य से उत्पन्न दुष्ट व्याधिया शान्त हो जाती हैं। हे भगवन ! मत्रोपचार तो दूर की बात है, उसे रहने दें तो भी आपको थद्धाभक्ति मे किया गया एक प्रणाम भी बहफलदायी होता है। नर और तियक गति में उन्पन्न जीव प्रापकी भक्ति मे दुःख तथा दुर्गति नहीं पाते। चिन्तामणि और कल्प पादपसमान अापके सम्यक्त्व जो प्राप्त कर जीव निविघ्न अजर-अमर स्थान प्राप्त कर लेते है। हे महान् यशस्विन ! भक्ति की अतिशयता से भरित हृदय से मैं आपकी स्तुति करता हूं। हे पार्श्व जिनचन्द्र ! मुझे बोधिलाभ हो, ऐसी प्रार्थना है।